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शब्दोंका अत्याचार

समाज मुझे सनातनी हिन्दू स्वीकार करता है। स्थूल रूपसे हिन्दू वह है जो ईश्वरमें विश्वास करता है, आत्माकी अनश्वरता, पुनर्जन्म, कर्म-सिद्धान्त और मोक्षमें विश्वास करता है और जो अपने दैनिक जीवनमें सत्य और अहिंसाका अभ्यास करनेका प्रयत्न करता है, और जो इसलिए अत्यन्त व्यापक अर्थमें गोरक्षा करता है, वर्णाश्रम धर्मको समझता तथा उसपर चलनेका प्रयत्न करता है।

४. स्वामी दयानन्द विषयक झगड़ेमें मुझे नहीं पड़ना चाहिए [१]

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १४-१०-१९२६

५३५. शब्दोंका अत्याचार

२३ सितम्बरके 'यंग इंडिया'में प्रकाशित, मेरे लेख "प्रार्थनामें विश्वास नहीं" पर एक भाई लिखते हैं:

उपर्युक्त शीर्षकके अपने लेखमें आप न तो उक्त लड़केके प्रति न्याय करते हैं और न एक महान् विचारकके रूपमें अपने प्रति। यह सच है कि उस विद्यार्थीके पत्रके सभी शब्द एकदम मुनासिब नहीं हैं, किन्तु उसके विचारोंकी स्पष्टताके विषयमें तो कोई सन्देह नहीं हो सकता। यह स्पष्ट मालूम होता है कि 'लड़का' शब्दसे जो अर्थ समझा जाता है, उस अर्थमें वह लड़का नहीं है। वह २० वर्षसे कम उम्रका हो तो मुझे बहुत आश्चर्य ही होगा। अगर वह कम उम्रका हो तो भी उसका इतना मानसिक विकास तो हो ही चुका है कि उसे यह कहकर चुप नहीं किया जा सकता कि 'बच्चोंको बहस नहीं करनी चाहिए।' पत्रलेखक बुद्धिवादी है; और आप हैं श्रद्धावादी। ये दोनों भेद युगों पुराने हैं और इनका झगड़ा भी उतना ही पुराना है। एककी मनोवृत्ति है—'मुझे कायल कर दो और में विश्वास करने लगूँगा।' दूसरेकी मनोवृत्ति है—'पहले विश्वास करो, पीछे कायल अपने आप ही हो जाओगे।' पहला अगर बुद्धिको प्रमाण मानता है तो दूसरा आप्तवाक्यको। आप ऐसा कुछ विश्वास करते हैं कि कम उम्रके लोगोंमें कुछ समयके लिए नास्तिकता आती है और फिर आगे-पीछे उनमें आस्था पैदा हो जाती है। आपके इस विचारके समर्थनमें स्वामी विवेकानन्दका प्रसिद्ध उदाहरण उपलब्ध है। इसलिए आप उस 'लड़के' को—उसीके लाभके लिए—प्रार्थनाका एक घूँट जबरन् पिलाना चाहते हैं। आपके विचारसे प्रार्थनाके दो हेतु होते हैं। पहला हेतु है प्रार्थना के लिए
  1. ९-९-१९२६ तथा २९-७-१९२६ के यंग इंडिया में प्रकाशित "बालविवाहके समर्थनमें" तथा "अस्पृश्यता रूपी रावण" का हवाला देते हुए पत्रलेखकने लिखा था, क्या आपमें भी वैसी ही असहिष्णुता नहीं है जैसी आपने स्वामी दयानन्द और आर्यसमाजमें बताई है।