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शब्दोंका अत्याचार
नहीं, किन्तु संसारमें तो उनके हिस्सेमें गुलामी ही आई है। अब हम प्रकृत विषयकी ओर मुड़ें। आपका दावा है कि "विश्वास करो। श्रद्धा अपने आप ही आ जायेगी"; यह बिलकुल सही है, बेहद सही है। इस दुनियाकी बहुत कुछ धर्मान्धताकी जड़ इसी प्रकारकी शिक्षामें मिलती है। अलबत्ता यदि लोगोंके दिमागमें ये बातें कोई काफी बचपनसे ही डालने लगे और उन्हें वही बात काफी दिनोंतक बार-बार कहता रहे तो उनका विश्वास किसी भी चीजमें जमाया जा सकता है। धर्मान्ध हिन्दू और कट्टर मुसलमान इसी प्रकार तैयार किये जाते हैं। दोनों ही सम्प्रदायों में ऐसे थोड़े आदमी जरूर होते हैं जो अपने ऊपर लादे गये इन विश्वासोंसे अप्रभावित रहते हैं। क्या आप जानते हैं कि अगर हिन्दू और मुसलमान अपने धर्मशास्त्रको परिपक्व बुद्धि होनेके पहले न पढ़ें तो वे उनके रूढ़ सिद्धान्तोंके प्रति ऐसे अन्धविश्वासी न बनें और उनके लिए झगड़ना छोड़ दें? हिन्दू-मुस्लिम दंगोंकी दवा है लड़कोंकी शिक्षासे धर्मको दूर रखना; किन्तु आप इसे पसन्द नहीं करेंगे, क्योंकि आपकी मनोरचना ही ऐसी नहीं है।
आपने इस देशमें, जहाँ साधारणतः लोग बहुत डरते हैं, साहस, कार्यशीलता और त्यागका अपूर्व उदाहरण दिखाया है। इसके लिए लोगोंके ऊपर आपका बहुत बड़ा ॠण है। किन्तु जब आपके कामोंकी अन्तिम आलोचना होगी, तब कहना ही पड़ेगा कि आपके प्रभावसे, इस देशकी मानसिक उन्नतिमें बहुत बड़ी रुकावट आई है।

अगर २० वर्षीय किशोर 'लड़का' नहीं है तो कहना चाहिए कि फिर में लड़का' शब्दका सामान्यत: प्रचलित अर्थ नहीं जानता। असलमें में तो उन सभीको जो स्कूलमें पढ़ने जाते हैं, उम्रका खयाल किये बिना लड़का या लड़की ही कहूँगा। मगर, उस सन्देहशील विद्यार्थीको हम लड़का कहें या सयाना आदमी, मेरे तर्कपर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। विद्यार्थी, एक सैनिक-जैसा होता है (और सैनिककी उम्र ४० सालकी भी हो सकती है)। वह जब एक बार सैनिक अनुशासन स्वीकार कर लेता है और उसके अधीन रहना मान लेता है तब अनुशासनके विषयमें कुछ भी नहीं कह सकता। यह नहीं हो सकता कि सैनिक अपनी पल्टनमें शामिल भी रहे और उसे जो काम दिया जाये उसे करने या न करनेकी छूट भी रहे। उसी प्रकार कोई भी विद्यार्थी, चाहे वह कितना ही बड़ी उम्रका और बुद्धिमान क्यों न हो; एक बार किसी स्कूलमें दाखिल होते ही उसके नियमोंके विरुद्ध चलनेका अधिकार खो बैठता है। इसमें उस विद्यार्थीकी बुद्धिको कम कहने या उसकी बुद्धिकी अवगणना करनेका कोई सवाल नहीं है। अनुशासनका स्वेच्छासे पालन करना छात्रकी बुद्धिके लिए सहायता रूप है। किन्तु मेरे पत्रलेखक महोदयने शब्दोंके अत्याचारका भारी जुआ स्वेच्छारो अपने कन्धेपर उठा लिया है। उन्हें काम करनेवालेके हर काममें, जो उसे पसन्द न पड़े, 'बलात्कार' की गन्ध मिलती है। मगर बलात्कार और बलात्कारमें भेद होता है। स्वेच्छासे स्वीकृत अनिवार्यताको हम आत्मसंयम कहते हैं। हम उसे दृढ़तासे