अपनाते हैं और उसके सहारे अपना विकास करते हैं। किन्तु यदि कोई संयत करनेवाला नियम हमारी इच्छाके विरुद्ध हमारे ऊपर लादा जाये और वह भी इस नीयतसे कि उससे हमारा अपमान हो और मनुष्य या लड़कोंकी हैसियतसे हमारे मनुष्यत्वका अपहरण हो तो ऐसी अनिवार्यताका प्राणपनसे त्याग किया जाना चाहिए। सामाजिक संयम पालन करनेके नियम साधारणतः लाभदायक ही होते हैं और यदि हम उनका त्याग करते हैं तो स्वयं हानि हमारी होती है। पेटके बल रेंगने-जैसी आज्ञाओंका पालन करना नामर्दी और कायरता है। उससे भी बुरा है उन विकारोंके आगे झुकना जो दिन-रात हमें घेरे रहते हैं और हमें अभिभूत करनेके लिए तैयार रहते हैं।
किन्तु एक शब्द और पत्रलेखकको जकड़े हुए हैं। यह महाशब्द है 'बुद्धिवाद'! मुझे भी यह पूरी मात्रामें प्राप्त हुआ था। किन्तु अनुभवने मुझे इतना नम्र बना दिया है कि मैं बुद्धिकी विशिष्ट मर्यादाओंको समझ सकूँ। जिस प्रकार अस्थानमें रखे जानेसे कोई भी वस्तु कूड़ा गिनी जाती है, उसी प्रकार अपने अनुचित प्रयोगसे बुद्धि भी पागलपन कही जाती है। जिस शक्तिका जहाँतक अधिकार है, अगर हम उसका प्रयोग वहींतक करें तो सब कुछ ठीक बना रहेगा।
बुद्धिवादी पुरुष प्रशंसनीय होते हैं। किन्तु बुद्धिवाद तब भयंकर राक्षस बन जाता है जब वह असीम शक्तिका दावा करता है। बुद्धिको ही सर्वशक्तिमान मानना, उतनी ही बुरी मूर्तिपूजा है जितनी ईट या पत्थरको ईश्वर मानना।
प्रार्थनाकी उपयोगिताको तर्कसे किसने जाना है। इसकी उपयोगिताका पता अभ्यासके बाद ही चलता है। संसारकी गवाही तो यही है। जब कार्डिनल न्यूमेनने कहा था "मेरे लिए एक कदम ही काफी है", तब उन्होंने बुद्धिका त्याग नहीं किया था बल्कि प्रार्थनाको उससे ऊँचा स्थान दिया था। शंकर तो बुद्धिवादियोंमें श्रेष्ठ थे। संसारके साहित्यमें शायद ही ऐसी कोई वस्तु हो जो शंकरके बुद्धिवादसे श्रेष्ठ हो। किन्तु उन्होंने पहला स्थान प्रार्थना और भक्तिको ही दिया है।
पत्रलेखकने संसारमें होनेवाली क्षणिक और क्षोभकारी घटनाओंको लेकर एक सामान्य निष्कर्ष निकालकर उतावली की है। किन्तु इस संसारमें सभी वस्तुओंका दुरुपयोग होता है। ऐसा मालूम होता है कि मनुष्यके सभी कार्योपर यह नियम लागू होता है। इतिहासमें धर्मके कारण बहुतसे बड़े-बड़े अपराध हुए हैं। किन्तु इसमें दोष धर्मका नहीं है; मनुष्यके भीतरके दुर्दमनीय पशुत्वका है? अपने पशुपूर्वजोंका गुण अभी मनुष्यमें शेष है।
मैं एक भी ऐसे बुद्धिवादीको नहीं जानता जिसने कभी कोई भी काम शुद्ध विश्वासके वशीभूत होकर न किया हो, बल्कि जिसने सभी काम बुद्धिके द्वारा उनकी अच्छाईका निश्चय करके किये हों। किन्तु हम सब जानते हैं कि करोड़ों लोग अपना जीवन न्यूनाधिक व्यवस्थित रूपसे इसी कारण बिता पाते हैं कि हम सबके बनानेवाले सृष्टिकर्त्तामें उनका अटल और अबोध विश्वास है। ऐसा विश्वास ही प्रार्थना है। वह लड़का, जिसके पत्रके आधारपर मैंने अपना लेख लिखा था, उस बड़े मनुष्य-समुदाय में