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शब्दोंका अत्याचार

से एक है और मैंने वह लेख उसे और उसीके समान दूसरे सत्य-शोधकोंको उनके पथपर दृढ़ करनेके लिए लिखा था; पत्रलेखकके समान बुद्धिवादियोंकी शान्ति भंग करनेके लिए नहीं।

मगर वे तो उस मोड़का ही विरोध करते हैं जो शिक्षक या गुरुजन संसारके युवकोंको देना चाहते हैं। मगर लगता है कि यह कठिनाई (अगर कठिनाई है तो) प्रभाव ग्रहण करने योग्य उम्रसे सम्बद्ध कठिनाई है और यह कठिनाई सदा बनी रहेगी। शुद्ध धर्मविहीन शिक्षा भी बच्चोंके मनको एक खास ढंगका बनानेका प्रयत्न है। पत्रलेखकने यह तो स्वीकार किया है कि मन और शरीरको एक खास तालीम और एक खास दिशा दी जा सकती है; पर आत्माकी, जो शरीर और मनके अस्तित्वको सम्भव बनाती है, उन्हें कुछ परवाह नहीं है। शायद उन्हें उसके अस्तित्वमें ही शंका है। मगर इस अविश्वाससे उनका कोई काम नहीं सरेगा। वे अपने तर्कके परिणामसे बच नहीं सकते, क्योंकि कोई श्रद्धालु व्यक्ति उक्त पत्रलेखककी बातके आधारपर ही तर्क देकर यह क्यों न कहे कि जैसे लोग लड़कों और लड़कियोंके मन और शरीरपर असर डालते हैं वैसे ही उनकी आत्मापर क्यों नहीं डाला जाना चाहिए? सच्ची धार्मिक भावनाके उदय होते ही, धार्मिक शिक्षाके दोष लुप्त हो जायेंगे। धार्मिक शिक्षाको छोड़ देना वैसा ही है जैसे कोई किसान खेतका उचित उपयोग न जानता हो, अतः उसे बंजर पड़ा रहने दे और उसमें घास-पात उगने दे।

आलोच्य विषयके साथ महान् आविष्कारोंकी बात करना जैसा कि लेखकने किया है, बिलकुल असंगत है। उन आविष्कारोंकी उपयोगिता या चमत्कारितामें किसीको सन्देह नहीं है, स्वयं मुझे भी नहीं है। बुद्धिके समुचित उपयोगके लिए ये क्षेत्र सर्वथा समुचित थे। किन्तु उन प्राचीन लोगोंने प्रार्थना और भक्तिकी मूल भित्तिको ही नहीं तोड़ डाला था। श्रद्धा और विश्वासके बिना जो काम किया जाता है, वह उस कागजी फूलके समान होता है जिसमें सुवास नहीं होती। मैं बुद्धिको दबाने के लिए नहीं कहता, बल्कि स्वयं मानव बुद्धिको जिस वस्तुने पवित्र बनाया है, उसे स्वीकार करनेके लिए कहता हूँ।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १४-१०-१९२६