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५४३. पत्र: मीराबहनको

[आश्रम
साबरमती
१५ अक्तूबर, १९२६]

प्रिय मीरा,

बचा हुआ काम निपटानेके लिए मैंने मौन ले लिया है। मुझे खयाल नहीं था कि ग्लिसरीन जानवरकी चर्बीसे बनाई जाती है। परन्तु अब जब तुमने इसका जिक्र किया तो ध्यान आया कि यह बात मुझे मालूम थी। जानवरकी चर्बीसे बनी होनेपर भी तुम्हें इसे गलसुओंमें लगाते रहना चाहिए। खाना और लगाना, दोनों एक ही बात नहीं। तुम शायद ऐसे साबुनको जिसमें चर्बी पड़ी होती है, लगाती तो हो लेकिन चर्बीका तुम भोजनमें उपयोग नहीं करोगी। इससे ज्यादा बातें फिर कभी। मुझे उम्मीद है कि तुम इस बातको लेकर परेशान नहीं रहोगी।

बापू

अंग्रेजी पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ५१८७) से।

सौजन्य: मीराबहन

५४४. पत्र: आठवलेको

आश्रम
१५ अक्तूबर, १९२६

प्रिय मित्र,

अब मुझे आपके पत्रके सिलसिलेमें जमनालालजीका ब्योरेवार उत्तर मिल गया है। उससे पता चलता है कि आपने अपनी भूल स्वीकार करते हुए और उनको इतनी ज्यादा परेशानीमें डालने और तकलीफ देनेके लिए क्षमा माँगते हुए, पत्र लिखे हैं। जहाँ तक मैं समझता हूँ, जमनालालजीने आपको खुश करने के लिए कुछ अधिक ही किया है। और पंचोंने, जो आपकी ही इच्छासे नियुक्त किये गये थे, आपके खिलाफ फैसला दिया है। जमनालालजीने मुझे यह भी बताया है कि आपके सम्बन्धमें डा॰ मेहताके साथ न उनका कोई पत्र-व्यवहार हुआ है और न कोई और बातचीत ही। इसलिए मेरे लिए करनेको कुछ रह ही नहीं जाता।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत आठवले
सदाशिव पेठ, पूना शहर

अंग्रेजी प्रति: (एस॰ एन॰ १९७२०) की माइक्रोफिल्मसे।