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५४५. पत्र: सतीशचन्द्र मुकर्जीको

आश्रम
साबरमती
१५ अक्तूबर, १९२६

प्रिय सतीश बाबू,

समझ-बूझकर संलग्न किये हुए कागजोंके[१] साथ आपका पत्र मिला। मुझे मालूम नहीं था कि कृष्णदास आपके पास नहीं है। मैंने यह सोचकर कि वह आपके साथ सीधे आपकी देखरेखमें कहीं है, उसके बारेमें कभी कोई चिन्ता नहीं की थी।

सच है कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या अधिकाधिक जटिल बनती जा रही है। लेकिन जहाँ बस न चले वहाँ कोई करे भी तो क्या करे ? मैं आशावादी हूँ क्योंकि ईश-प्रार्थना के साथ-साथ चिन्तन-मननकी प्रभावशीलताके बारेमें मुझे बड़ा विश्वास है। जब कर्मके लिए उपयुक्त समय आ जायेगा तब ईश्वर हमें रोशनी दिखायेगा और हमारा पथ-प्रदर्शन करेगा। इसलिए मैं प्रार्थनापूर्वक स्थितिको देखता हुआ प्रतीक्षा कर रहा हूँ और किसी भी क्षण संकेत मिलते ही कर्मरत होनेके लिए प्रस्तुत हूँ।

कुमारी लिलियन एडगरने आपको जो कतरन भेजी है वह और 'नो मोर वार' से लिये गये उद्धरण दिलचस्प हैं। मुझे उम्मीद है कि मैं 'यंग इंडिया' में उन दोनोंका उपयोग कर सकूँगा। लॉर्ड ऑक्सफोर्डका लेख मैंने अभी नहीं पढ़ा। अपने स्वभावानुसार आपने अपने स्वास्थ्यके बारेमें कुछ नहीं कहा। आप किसी समय पत्रमें इतना तो लिख दीजिए कि आप पहलेसे अच्छे हैं। अब रोमांरोलाँके भारत आनेकी कोई सम्भावना नहीं; कमसे-कम आगामी सर्दीके मौसममें तो बिलकुल नहीं। धीरे-धीरे बुढ़ापा उनपर हावी हो रहा है; उनका शरीर है भी बहुत नाजुक।

हृदयसे आपका

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ११००६) की फोटो-नकलसे।

 
  1. श्री मुकर्जीने अपने १२ अक्तूबर, १९२६ के पत्रके साथ जो कागजात भेजे थे उनमें १५ सितम्बर, १९२६ को लिपजिंगके डा॰ कार्ल थीम द्वारा कृष्णदासको लिखे पत्रको नकल; रस्किन कालेजके प्रधानाध्यापक द्वारा लिखित असहयोगके विषय में 'एक क्वेकरके विचार' शीर्षक लेखको टाइप शुदा प्रति और कुमारी लिलियन एडगर द्वारा स्टेट्समैनके ३-१०-१९२६ के अंकमें लिखे एक पत्रकी कतरन थी।