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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मुझे ऐसा नहीं लगा कि जैन लोग इस समय दूसरोंकी बनिस्बत अहिंसाका अधिक पालन करते हैं। जैनोंके साथ मेरा सम्बन्ध तो इतना पुराना है कि बहुतसे लोग मुझे जैन ही मानते हैं। महावीर दयाकी—अहिंसाकी—मूर्ति थे। मेरी इच्छा उनके भक्तोंको भी वैसा ही देखनेकी है। लेकिन मेरी वह इच्छा सफल नहीं होती।

छोटे जीवोंकी रक्षा करना अहिंसा-धर्मका एक आवश्यक अंग अवश्य है। मगर इसकी समाप्ति वहाँ नहीं हो जाती, उससे तो वह आरम्भ ही होता है। किन्तु रक्षाका अर्थ केवल न मारना ही नहीं है। जीवोंको कष्ट देना और जिन्हें बेमौत मरना पड़ेगा उनकी अनावश्यक उत्पत्तिमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भाग लेना भी हिंसा ही है।

कुत्तोंकी वृद्धि अनावश्यक है। आवारा कुत्ते समाजके लिए हानिकर हैं और उनकी संख्या बढ़नेसे समाजका जीवन जोखिममें पड़ता है—यदि हम चाहते हैं कि कुत्ते सुखसे रह सकें तो शहर या गाँवमें एक भी आवारा कुत्ता दिखाई नहीं पड़ना चाहिए। जिस प्रकार केवल पालतू गायें-भैंसे ही देखने में आती हैं, उसी प्रकार केवल पालतू कुत्ते ही देखने में आने चाहिए। जीवदया संस्थाओंको इस प्रश्नका धर्मसम्मत निर्णय करना चाहिए।

क्या आवारा कुत्तोंका पाला जाना सम्भव है? अगर वे पाले न जा सकें तो क्या उनके लिए पिंजरापोल बनाये जायें? अगर इन दोनों में से एक भी उपाय सम्भव न हो तो उन्हें मार देनेके सिवा मुझे कोई दूसरा उपाय दिखाई नहीं देता।

हम आँख मूँदकर, वस्तुस्थितिको देखकर भी अनदेखा करें तो इसमें न अहिंसा है, न विचार और न विवेक। जबतक कुत्तोंका उपद्रव रहेगा, तबतक वे मनुष्यके हाथों मरेंगे ही। मैं गृहस्थ-धर्ममें इसे अनिवार्य समझता हूँ। वे जबतक पागल न हो जायें तबतक राह देखना उनपर दया करना नहीं है। अगर कुत्तोंकी सभा की जा सकती होती तो वे क्या विचार करते, हम इसकी कल्पना उनकी तुलना अपने साथ करके कर सकते हैं। हम जैसे-तैसे जीते रहना कभी पसन्द न करेंगे। हममें से बहुत-से आदमी इसे पसन्द किये हुए हैं, किन्तु यह कोई सद्गुण नहीं है। चतुर मनुष्योंकी सभा ऐसा निर्णय नहीं करेगी कि मनुष्य परस्पर पागल या आवारा कुत्तेके समान बरताव करें। जिस प्रकार हम कुत्तोंके मालिक हैं, उसी प्रकार यदि कोई प्राणी हमारा मालिक हो तो हम उससे क्या आशा रखेंगे? हम क्या ऐसा न चाहेंगे कि वह हमें कुत्तेके समान रखने के बजाय मार ही डाले तो अच्छा? हम आवारा कुत्तेको रोटीका एक टुकड़ा या जूठन देकर कुत्तोंकी जातिसे द्रोह और अपने पड़ोसियोंके प्रति हिंसा करते हैं।

स्वयं दुःख सहकर सभी कुत्तोंको जीने देना धर्म है; किन्तु वह धर्म उस गृहस्थके लिए नहीं है, जिसे जीनेकी इच्छा है, जो वंशवृद्धि करता है और जिसके ऊपर संसार चलानेका भार है। गृहस्थ तो कुछ कुत्तोंको ही जीवित रहने देनेका मध्यम मार्ग ग्रहण कर सकता है।

हम आज जिन प्राणियोंको पालते हैं, वे पहले जंगली थे। भैंस तो एक इसी देशमें पाली जाती है। जंगली प्राणियोंको पालनेमें पाप है, क्योंकि उनसे मनुष्य