अपना स्वार्थसाधन करता है। हम गायों-भैंसोंका जो पालन करते हैं, सो उनपर कुछ दया नहीं करते। हम उन्हें अपने स्वार्थके लिए ही पालते हैं और इसलिए गाय या भैंसको घूमते रहनेकी छुट्टी नहीं देते। वही नियम कुत्तोंपर भी लागू होता है। इसीलिए मेरा निश्चित मत यह है कि अगर हम शुद्ध जीवदया-धर्मका पालन करना चाहते हों तो ऐसा कानून बनाया जाना चाहिए कि यदि कुत्ता किसीका हो, तो मालिक उसे अपने कब्जेमें रखे और एक निश्चित अवधिके बाद लावारिस पाये जानेवाले कुत्ते मार दिये जायें। यदि पंच लोग सचमुच कुत्तोंके ऊपर तरस खाते हों तो उन्हें सारे कुत्तोंको अपने कब्जेमें रखना चाहिए और जो उन्हें पालना चाहें वे उनमें बाँट दिये जाने चाहिए। किन्तु कुत्तोंकी सार-सँभाल गायोंकी तरह करना तो मुझे अशक्य मालूम होता है।
कुत्तोंको पालनेका एक शास्त्र ही है। पश्चिमके लोगोंने उसे तैयार किया है। उन्होंने कुत्तोंको पालनेकी ठीक विधि ढूँढ़ी है। उनसे वह सीखकर इस दोषकी निवृत्तिका कोई उपाय मिले तो तदनुसार व्यवहार करना उचित होगा। यह काम धीरज, विवेक और परिश्रमके बिना नहीं किया जा सकता।
इतना तो कुत्तोंके विषयमें हुआ। किन्तु अहिंसा-धर्मका क्षेत्र विशाल है। में उसपर विशेष विचार फिर करूँगा।
नवजीवन, १७-१०-१९२६
५४८. पत्र: जमनालाल बजाजको
आश्विन सुदी ११, १९८२ [१७ अक्तूबर, १९२६]
गिरधारी कहता है कि तुम्हारा स्वास्थ्य अभीतक अच्छा नहीं हुआ । यह बात ठीक नहीं है। तुम्हें कहीं भी जाकर अपना स्वास्थ्य सुधार ही लेना चाहिए। तुम्हें एकान्तमें जाना चाहिए। तुम्हें अच्छी हवा चाहिए और साथमें योग्य साथी भी। तुम्हारी व्याधि शारीरिक एवं मानसिक है। तुम्हें कामका बोझ ज्यादा नहीं उठाना चाहिए।
कमलाकी चिन्ता करनेका कोई कारण नहीं है। जैसा बुखार दूसरोंको आता है वैसा बुखार उसे भी आ गया है। वह तो वर्धा, बम्बई या किसी भी जगह जानेके लिए तैयार है। परन्तु जबतक उसकी तबीयत अच्छी नहीं होती, तबतक उसे भेजनेकी इच्छा नहीं है; और जरूरत भी नहीं है। मैं उससे मिलता रहता हूँ। चिन्ता तो कमलाकी सासके बारेमें रहती है, क्योंकि वह बहुत घबराती है; परन्तु वह अच्छी तो हो ही जायेगी।