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जटिल प्रश्न
क्या किसी पुरुष या स्त्रीको रामनामके उच्चारण मात्रसे, राष्ट्रीय सेवामें भाग लिये बिना, आत्म-दर्शन प्राप्त हो सकता है? मैंने यह प्रश्न इसलिए पूछा है कि मेरी कुछ बहनें यह कहा करती हैं कि उन्हें गृहस्थीका कामकाज करने तथा यदा-कदा दीन-दुखियोंके प्रति दया भाव दिखानेके अतिरिक्त और कोई काम करनेकी जरूरत नहीं है।

इस बातने केवल स्त्रियोंको ही नहीं, बहुतसे पुरुषोंको भी उलझनमें डाल रखा है और मैं भी इसके कारण धर्म-संकटमें पड़ा हूँ। मुझे यह बात मालूम है कि कुछ लोग सिद्धान्ततः काम और परिश्रम मात्रको व्यर्थ मानते हैं। में इसे अच्छा सिद्धान्त नहीं कह सकता। अगर मैं यह स्वीकार करना ही चाहूँ, तो अपना ही अर्थ लगाकर उसे स्वीकार कर सकता हूँ। मेरी नम्र सम्मति तो यह है कि मनुष्यको फलका विचार छोड़कर विकासके लिए परिश्रम करना ही चाहिए। रामनाम या कोई ऐसा ही पवित्र नाम जरूरी है—महज उच्चारणके लिए ही नहीं, आत्मशुद्धिके लिए, हमारे प्रयत्नको सहारा देनेके लिए और ईश्वरसे सीधा मार्गदर्शन पानेके लिए। इसलिए रामनामका उच्चारण कभी परिश्रमका स्थान नहीं ले सकता? वह तो परिश्रमको अधिक बलयुक्त बनाने और उसे उचित मार्गपर ले जानेके लिए है। यदि परिश्रम-मात्र व्यर्थ ही है तब फिर घर-गृहस्थीकी चिन्ता क्यों की जाये और दीन- दुखियोंको यदा-कदा सहायता भी क्यों दी जाये? स्वयं इस प्रयत्नमें ही राष्ट्र सेवाका अंकुर मौजूद है। और मेरे लेखे राष्ट्र-सेवा मानव जातिकी सेवा है। यहाँतक कि कुटुम्बकी निर्लिप्त भावसे की गई सेवा भी मानव जातिकी सेवा है। इस प्रकारकी कौटुम्बिक सेवा राष्ट्र सेवाकी ओर ले ही जाती है। रामनामसे मनुष्यमें विरक्ति और समता आती है और रामनाम उसे आपत्तिकालमें भी कभी धर्मच्युत नहीं होने देता। में गरीबसे गरीब लोगोंकी सेवा किये बिना या उनके हितमें अपना हित माने बिना मोक्ष पाना असम्भव मानता हूँ।

दूसरा प्रश्न यह है:
हिन्दू-धर्ममें पतिपरायणता और पतिके प्रति पत्नीका सम्पूर्ण आत्म-समर्पण ही सर्वोच्च आदर्श माना गया है, फिर पति चाहे राक्षस हो चाहे साक्षात् प्रेमकी मूर्ति। यदि पत्नीके लिए यही रास्ता सही है, तो क्या वह पतिका प्रबल विरोध होते हुए भी राष्ट्रीय सेवाका काम कर सकती है? या उसका धर्म पति द्वारा निर्धारित सीमामें रहकर काम करते रहना ही है?

सीताको मैं आदर्श पत्नी और रामको आदर्श पति मानता हूँ। लेकिन सीता रामकी दासी नहीं थी या कहना चाहिए कि यदि सीता रामकी दासी थी तो राम भी उनके दास थे। राम सीताका बहुत ज्यादा खयाल रखते थे। जहाँ सच्चा प्रेम होता है, वहाँ जैसा प्रश्न पूछा गया है, वैसा प्रश्न उठता ही नहीं है। जहाँ सच्चे प्रेमका अभाव होता है, वहाँ प्रेम-बन्धन कभी नहीं होता। आजकलकी हिन्दू गृहस्थी एक अनूठी पहेली है। पति और पत्नी विवाहित होते समय एक दूसरेके बारेमें बिलकुल नहीं जानते। शास्त्राज्ञा, रिवाज तथा विवाहित दम्पतियोंका निष्कंटक जीवन—ये