चीजें अधिकांश हिन्दू घरोंमें शान्ति बनाये रखती हैं। लेकिन जब पत्नी या पतिके विचार साधारणतः प्रचलित विचारोंसे भिन्न होते हैं, तब उनमें कलह होनेका भय उत्पन्न हो जाता है। पति तो अपनेको निरंकुश समझता है। वह अपनेको अपनी जीवन-सहचरीसे सलाह लेनेके लिए बँधा नहीं मानता। वह उसे अपनी मिल्कियत मानता है और वह बेचारी जो उसकी इस मान्यतामें विश्वास करती है, प्रायः अपनी आत्माको दबाकर रहती है। मैं समझता हूँ कि इस स्थितिसे उभरनेका रास्ता है। मीराबाईने मार्ग दिखा दिया है। जब पत्नी अपनेको गलतीपर न समझे और जब उसका उद्देश्य अधिक ऊँचा हो, तब उसे पूरा अधिकार है कि वह अपने मनका रास्ता अख्तियार कर ले और नम्रतासे परिणामका सामना करे।
तीसरा प्रश्न यह है:
इस प्रश्नका कुछ उत्तर दूसरे प्रश्नके उत्तरमें आ गया है। पतिके गुनाहोंमें पत्नीका साथी बनना लाजिमी नहीं है और जब पत्नी किसी बातको बुरा समझती है, तब उसमें सही रास्तेपर चलनेकी हिम्मत होनी ही चाहिए। लेकिन यह विचारते हुए कि गृहिणीका काम तो घरका कामकाज सँभालना और इसलिए खाना पकाना भी है—ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार पतिका काम कुटुम्बके लिए धन कमाना है, उसके लिए मांस पकाना उस हालतमें जब दोनों पहले मांस खाते रहे हों, लाजिमी है। और अगर किसी शाकाहारी कुटुम्बमें पति मांसाहारी बन जाये और अपनी पत्नीको मांस पकानेके लिए मजबूर करे, तो पत्नी अपने कर्त्तव्य भावके प्रतिकूल इसके लिए बाध्य नहीं है। घरमें शान्ति अत्यन्त अभीष्ट वस्तु है। लेकिन इसे अपने आपमें एक ध्येय नहीं माना जा सकता। मेरे लिए तो विवाहित अवस्था भी अनुशासनकी वैसी ही एक अवस्था है जैसी कोई अन्य हो सकती है। जीवन कर्त्तव्य है—कर्त्तव्यकी शिक्षा पाने का काल है। विवाहित जीवनका मंशा यह है कि यहाँ और इसके बाद भी हम पारस्परिक मंगलके कारण हों। उसका हेतु मानव जातिकी सेवा करना भी है। जब एक पक्ष अनुशासनके नियमोंका उल्लंघन करता है, तब दूसरेको हक हो जाता है कि वह बन्धनको तोड़ दे। यहाँ बन्धनके नैतिक उल्लंघनसे तात्पर्य है, न कि शारीरिकसे। इसमें तलाक नहीं आता। पत्नी या पति अलग भले हों—लेकिन उस उद्देश्यकी पूर्तिके लिए, जिसके निमित्त वे विवाहित हुए थे। हिन्दू धर्म पति पत्नीमें से प्रत्येकको एक दूसरेके बिलकुल समान मानता है। इसमें शक नहीं कि रिवाज कुछ और ही