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सात

वह कोई सांसारिक या ऐतिहासिक घटना नहीं है बल्कि वह तो उस अदृश्य संघर्षका सजीव और काव्यात्मक निरूपण है जो हमारे अन्तरमें निरंतर चल रहा है। वे कहते हैं, हमारे मनमें "जो ... पाण्डव कौरवोंसे युद्ध कर रहे हैं, इसमें उसीकी बात है। ... कृष्ण तो आत्मा है, वह हमारा सारथी है। उसके हाथमें अपनी लगाम दे देनेपर ही हम जीतेंगे" (पृष्ठ ११२)।

इस प्रकार जीवनकी बागडोर अन्तःस्थित श्रीकृष्णके हाथों सौंप देनेपर और अध्याय २ में जिसका व्यक्तित्व-दर्शन किया गया है, उस आदर्श स्थितप्रज्ञको अपने हृदयमें उतारकर उसे सुप्रतिष्ठित कर लेनेपर मानव अपनी स्वायत्तता, निर्णय- स्वातन्त्र्य और अपने प्रयत्नोंके उत्तरदायित्वमें ठीक समर्थ बन जाता है―कमजोर नहीं। 'गीता' हमारी तरफसे कोई निर्णय नहीं करती।... ममत्वको छोड़कर धर्मकी दृष्टिसे ही संकटकी घड़ीमें निर्णय लोगे तो त्रुटि होनेपर भी तुम्हें शोक नहीं करना पड़ेगा" (पृष्ठ ११२)। अनासक्तिकी दिशामें हमारी प्रगतिका माप करनेके लिए 'आत्मौपम्य' ही . . . गज है” (पृष्ठ ३६७)। यहाँ प्रगति कर पाना यद्यपि आसान काम नहीं है किन्तु व्यक्ति “दूसरोंको और अपनेको ईश्वरके माध्यमसे देखनेमें" (पृष्ठ २३३) सहायता प्राप्त करता है। तादात्म्य भावकी इस प्रक्रियामें हमारा पहला कदम होगा अर्जुनके साथ अपना तादात्म्य सिद्ध करना, ताकि हम यह प्रतीति कर सकें कि श्रीकृष्ण जो उपदेश अर्जुनको दे रहे हैं, वह हमारे ही लिए है।

इसीलिए हमारी सार्वजनिक प्रार्थनामें भी स्थितप्रज्ञके प्रति हमारी तादात्म्य भावना की अनुभूतिको सर्वोपरि महत्त्व दिया जाता है, जिसका उल्लेख 'गीता' के दूसरे अध्यायमें किया गया है। "ये श्लोक समझकर आत्मसात् करनेकी दृष्टिसे कहे गये हैं" (पृष्ठ १२९)। यह आदर्श मानव हमारे हृदयकी भूमिमें बोये हुए बीजकी तरह है जो वहाँ विविध परिस्थितियोंसे गुजरता हुआ स्वच्छन्द रूपसे पनपता रहता है। यह धर्मशास्त्र, अर्थात् 'गीता' भी वह भूमि ही है, जिसका उपयोग हमारा मन अंकुरित होते हुए बीजकी तरह अपने सर्जनके लिए करता है और विकासकी इस प्रक्रियामें आवश्यक तत्त्वोंको ग्रहण करता और बाकीको छोड़ता चलता है। अपने सम्मुख उठनेवाले धर्म, अधर्मके द्वन्द्वोंको सुलझानेमें मनुष्य धर्म-शास्त्रोंका किस प्रकार और किस हदतक पालन करे, इस बातका आधार मनुष्यकी मनोवृत्ति और शिक्षा-दीक्षापर अवलम्बित है। 'गीता' के काव्यानन्दका रसास्वादन तो सभी कर सकते हैं, (पृष्ठ २२०, २७७) परन्तु एक तत्पर साधकको तो 'गीता' का स्वाध्याय प्रारम्भ करनेसे पूर्व यम, नियम आदिका तथा अन्य अनुशासनोंका पालन करते हुए खरा अधिकारी बनना चाहिए। “इन साधनोंके बिना" 'गीता' द्वारा धार्मिक मार्ग-दर्शन प्राप्त करनेका प्रयत्न ठीक वैसा ही होगा, जैसा कि "बिना वनस्पतियोंको देखे वनस्पति शास्त्रका अभ्यास करना" (पृष्ठ १०७ )। दूसरे शब्दोंमें कहा जाये तो गांधीजीकी गीता-दृष्टि प्रयोगात्मक और व्यावहारिक है, निरी मीमांसात्मक और शास्त्रीय नहीं। 'गीता' का सम्मोहक काव्य हमें जीवनकी समस्याओंसे पलायनका पाठ नहीं पढ़ाता, बल्कि वह तो हमारे अहम्का उन्मूलन करनेके लिए जिस आचरणका