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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस एक जीवके मरनेसे बहुत जीवोंकी रक्षा होती है, ऐसा मानकर हिंसक जीवोंकी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए।

बहुत जीवोंकी हत्या करनेवाले ये जीव जीवित रहेंगे तो अधिक पापका उपार्जन करेंगे, ऐसा मानकर दयावश भी हिंसक जीवोंको मारना नहीं चाहिए।

अनेक दुःखोंसे पीड़ित जीव शीघ्र दुःखसे मुक्त हो जायें ऐसी विचार रूपी तलवार लेकर उसके द्वारा भी दुखी जीवोंको नहीं मारना चाहिए।

इनमें और आपके अभी हालके विचारोमें मतभेद दिखाई पड़ता है। इसका स्पष्टीकरण 'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' में है। मैं चाहता हूँ कि आप उसे देखनेके बाद अपना अभिप्राय व्यक्त करें।

'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' मुझे श्री रेवाशंकरभाईने दक्षिण आफ्रिकामें भेजा था तब मैं उसे पढ़ गया था। मेरे विचार अब किसीपर आधारित नहीं हैं। इन सब विचारोंको मैंने पहले-पहल जहाँसे भी ग्रहण किया हो लेकिन इस समय तो वे मेरे जीवनके अंश हैं और उन्हें व्यक्त करनेका अवसर उपस्थित हुआ है इसलिए मुझे उन्हें बताना पड़ता है। अहिंसाधर्मकी ऐसी सूक्ष्म चर्चासे कोई बहुत ज्यादा तात्कालिक लाभ होगा ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन मुझे लगता है कि उसके बारेमें अभी इतना ज्यादा अज्ञान फैला हुआ है कि यदि मैं किसी भय अथवा मोहके कारण अपने विचारोंको छिपाऊँ तो दोषमें पड़ता हूँ। इसीसे लाचार हो मैं यह लेखमाला लिख रहा हूँ।

मेरे मतानुसार उपर्युक्त श्लोकोंमें और मेरे विचारोंमें भेद नहीं है। परन्तु कदाचित् ऐसा सिद्ध होता हो तो मुझे भी मेरे विचार अहिंसा धर्मके अनुकूल मालूम होते हैं।

उपर्युक्त श्लोकोंका आशय मैंने यह समझा है कि मनुष्यको उनमें वर्णित भावना-से प्रेरित होकर किसीका भी वध नहीं करना चाहिए। कारण स्पष्ट है। ऐसा वध अनिवार्य है और इसलिए स्वाभाविक होना चाहिए। भावनामें इरादा और आरम्भ आते हैं और इरादा या आरम्भमें हिंसाका दोष है। जिसे 'गीता' निष्काम कर्म कहती है उस सहज प्राप्त धर्मका अनुसरण करना मुमुक्षुका कर्त्तव्य है। उसे जगतके मोक्षका विचार नहीं करना है अपितु अपने मोक्षके मार्गमें आनेवाली सेवा करनी है। मैले पानीके डबरेको मुझे पूरना चाहिए। लेकिन यह कार्य मेरे लिए स्वाभाविक होना चाहिए। उसे पूरते हुए मुझे ऐसा अभिमान नहीं रखना चाहिए कि "ऐसा करके मैं जगत्की सेवा कर रहा हूँ।" आचार्यके वचनोंमें निरभिमानता, नम्रता, अल्पारम्भ इत्यादिकी रक्षा है। जब ऐसा प्रसंग आए कि वध किये बिना काम ही न चले उस समय कैसी मानसिक स्थिति होनी चाहिए, इसे बतानेके लिए इन श्लोकोंकी रचना की गई जान पड़ती है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २१-११-१९२६