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६४. यज्ञसूतकी खादी

अ० भा० चरखा संघके एक सदस्य लिखते हैं:

सदस्यों की ओरसे मिलनेवाले सुतमें से जो खादी बुनकर बेची जाती है, उससे प्राप्त पैसेकी क्या व्यवस्था की जाती है? यह खादी यदि गरीबोंको बुनाई आदिका और अन्य खर्च जोड़कर सस्ती कीमत में दी जाये तो क्या बुराई है? आज जो पद्धति चल रही है उससे आपको क्या लाभ होता दिखाई देता है? मेरी इच्छा है कि आप 'नवजीवन' में इसका स्पष्टीकरण करें।

मुझे ऐसा लगता है कि इस प्रश्नका उत्तर एक बार दिया जा चुका है। अभी तो यह यज्ञका सूत इतना कम, और यद्यपि उसकी किस्म दिन-प्रतिदिन सुधरती जा रही है फिर भी वह इतना अव्यवस्थित आता है कि उससे केवल उसे लेने और रखनेका खर्च ही निकल पाता है। इसलिए सूतसे जो खादी बनती है वह सामान्य दरपर बेच दी जाती है। गरीबोंको दी जा सके उतनी खादी न तो यज्ञके सूतमें से बनती है और न दूसरे सूतसे ही बनती है। लेकिन सूतका यज्ञ गरीबोंके लिए अन्नपूर्णाका काम जरूर कर रहा है। गरीबोंके काते सूतसे जो खादी बनती है वह हालाँकि मिलके कपड़ेसे प्रति गजके हिसाबसे महँगी होती है फिर भी मध्यम और धनिक वर्गके लोग उसे खरीदकर फिलहाल कातनेकी कलाको सफल बना रहे हैं। छोटे पैमानेपर चलता हुआ यह यज्ञ जब व्यापक हो जायेगा तब गरीब वर्ग लगभग मुफ्त खादी पहनेगा और मध्यम तथा धनिक वर्ग सस्ती पहनेगा। इस समय तो चरखा संघको मिलनेवाले सूतसे मात्र भावनाका पोषण हो रहा है, उसमें वृद्धि होनेपर अर्थका पोषण भी होगा। यदि चरखा संघमें सदस्य न हों, और उनके लिए कातने की शर्त न हो तो इस समय जो लोग खादी कार्य कर रहे हैं, वे भी उसे न करें। इसलिए यद्यपि चरखा संघको मिलनेवाले सूतकी खादी अभी गरीब लोग नहीं पहन पा रहे हैं फिर भी उसकी प्रवृत्तिका सारा लाभ तो उन्हें मिल ही रहा है। चरखा संघका अस्तित्व ही गरीबोंके लिए है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २१-११-१९२६