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आठ

निर्देश करता है, अनवरत रूपसे उसका पालन करनेकी प्रेरणा भी देता है। 'गीता' का अध्ययन और मनन करनेके लिए हमें उसका भावार्थ समझ लेना ही काफी नहीं है। "गीताजी" के शब्द केवल इसलिए नहीं हैं कि हम उनका भाव और अर्थ समझ लें। वे तो तदनुसार आचरण किये जानेके लिए हैं। हम जिस विचारका पालन नहीं कर सकते, हमें उसकी बात छोड़ देनी चाहिए। यह बुद्धि और शक्तिका अपव्यय है कि हम जिस बातका पालन नहीं कर सकते, उसको झूठ-मूठ पढ़ते चले जायें" (पृष्ठ २१५)।

गांधीजीने असन्दिग्ध रूपसे 'गीता' के मूल रहस्यकी ओर निर्देश किया है। उस रहस्यका सम्पूर्ण तात्पर्य और अभिप्राय यही तो है कि हम अपने उस अहम्का, जो एक प्रतिबिम्ब और छाया मात्र है और जिससे हम चिपटे रहते हैं, रूपान्तरण कर दें या उसका निर्मूलन। वे कहते हैं "आध्यात्मिक बीमारी एक ही है, कारण भी एक है और उसका उपाय भी एक ही है। ऐसी एकता सिद्ध करनेके लिए 'गीता' में एक आत्यन्तिक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। स्वजन यदि वधके योग्य हों तो उनका वध किया जाना चाहिए। ... हम जिस हदतक ममत्व छोड़ेंगे, उसी हदतक सत्यका पालन कर सकेंगे" (पृष्ठ ११०)। अर्जुनका विषाद हत्या करनेकी अनिच्छाके कारण नहीं है बल्कि अपने स्वजनोंकी हत्याकी अनिच्छाके कारण है।

'गीता-शिक्षण' के ४१ से ४५ प्रकरणोंमें यज्ञकी व्यापक व्याख्या की गई है। किन्तु गांधीजीने उसमें उतनी ही छूट ली है जितनी कि शास्त्र सम्मत हो सकती है। वे कहते हैं कि ज्यों-ज्यों परिस्थितियाँ बदलती चलती हैं और मानव अधिकाधिक ज्ञान-सम्पन्न होता जाता है, ऐसेमें "पितासे प्राप्त जायदाद में पुत्रका वृद्धि करना उचित ही है। "हम उस दिनका अनुमान लगा सकते हैं जब "चरखेका भावार्थ कोई इस तरह निकाले कि जिस साधनसे सारे समाजको जीवन मिल सके, वह साधन अथवा वह काम―केवल लकड़ीकी ही बनी हुई चीज नहीं है" (पृष्ठ १५२)।

इस विशद व्याख्याके अनुसार यज्ञका अर्थ होगा: "परोपकारके लिए किया गया कर्म" (पृष्ठ १५३)। इसीलिए देवताओंको खुश करनेका अर्थ (३,११) यह होगा कि "देव और मनुष्य एक-दूसरेका पोषण करें। देवका अर्थ जीव मात्र अथवा ईश्वरकी समूची पोषक शक्ति। . . . इसीलिए हमने "देव" शब्द छोड़कर “दूरवर्ती" ऐसा अर्थ निकाला, अर्थात् अदृश्य व्यक्ति भी। हम उन्हें अपना नौकर मानकर नहीं, वरन् देवता मानकर विनय और आदरके साथ उनकी सेवा करें अर्थात् सारे संसारकी सेवा करें” (१५३-५४)। साथ ही गांधीजी दूसरे अध्यायके ५२-५३ तथा चौथे अध्यायके १७ वें श्लोककी व्याख्या अत्यन्त संयत भावसे करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि गांधीजी इस बातसे बचनेको बड़े उत्सुक हैं कि कहीं उनके इस साधारणसे विवेचनमें वे परम्परागत अर्थोंका अतिक्रमण न कर जायें। गांधीजी के प्रयासमें जो कुछ महत्त्वपूर्ण है वह उनकी मौलिकता नहीं, धर्म और आचारमें सामंजस्य और समन्वय स्थापित करनेका उनका सत्य-संकल्प है।

गांधीजीकी दृष्टिमें धर्म निरा रूढ़िगत लोकाचार नहीं था। धर्मको वे एक नैतिक सत्य-प्रयास मानते थे। वे उसे एक ऐसी आध्यात्मिक अनुभूति मानते थे जिसमें