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पत्र : रविशंकर गं० अंजारियाको

उपयोगिताकी खातिर में कभी हिंसाका सुझाव नहीं दूंगा। मेरी दृष्टिमें जहाँ धर्म नहीं वहाँ उपयोगिता नहीं।

लेकिन जिस तरह साग-सब्जीकी हिंसाको अनिवार्य मानकर साग-सब्जीकी हिंसा करनेवाले गायकी हिंसाको रोकनेका यत्न करते हैं उसी तरह कुत्तोंकी हत्या करने-वाले भी गोहत्याको रोकनेका उद्यम निस्संकोच भावसे कर सकते हैं। कुत्तोंकी हिंसा कब अनिवार्य है, इस प्रश्नपर [ प्रसंगके उपस्थित होनेपर ] हर समय विचार किया जा सकता है। बकरेकी हिंसा करनेवाले हिन्दू गोवधका त्याग करते हैं न?

जो मनुष्य अपने ही सुखकी खोजमें हिंसा करता चलता है वह धर्मको जानता ही नहीं है।

मेरे लेखोंसे अहिंसाकी नींव उखड़ जायेगी, ऐसा भय न रखिये।

मच्छर आदिकी कृत्रिम वृद्धिको जिस तरह हम अनावश्यक मानते हैं उसी तरह कुत्तोंको पालनेकी बातको भी क्यों न मानें?

मेरा प्रयास हिंसा सिखानेका नहीं है, अपितु झूठी अहिंसाकी निन्दा करनेका है। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि आजकी परिस्थितियोंमें, अर्थात् जब अहिंसाके नामपर घोर हिंसा चल रही है तब, लोग शुद्ध अहिंसाको एकाएक नहीं समझ सकते। मेरे अभिप्रायके मूलमें शुद्ध अहिंसा निहित है, इस बारेमें मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है। इसलिए मैं धीरज धरकर बैठा हुआ हूँ। आपको इसमें घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं आपको अथवा किसी भी व्यक्तिको कुत्ते अथवा किसी भी प्राणीको मारनेके लिए प्रेरित नहीं करूँगा।

मोहनदासके वन्देमातरम्

डाक्टर साहेब रविशंकर गणेशजी अंजारिया

मांगरोल

काठियावाड़

गुजराती पत्र (एस० एन० १९९६८) की माइक्रोफिल्मसे।