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तीनों साप्ताहिक पत्रों द्वारा ही दिये जाते हैं, जिन्हें में सम्पादित कर रहा हूँ। 'यंग इंडिया' और गुजराती तथा हिन्दी 'नवजीवन' में तो दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए भार- तीयों तथा उनकी सन्तानोंके लिए सदा ही सन्देश आदि दिये जाते रहते हैं। हालांकि मेरे नाम आई हुई निजी चिट्ठी-पत्रियोंके जवाब में स्वयं लिखवाता हूँ, तो भी परिस्थिति के कारण मुझे मजबूर होकर यह करना पड़ा है कि उतने ही निजी पत्रोंके जवाब दूं जितनोंके दे सकता हूँ, और अपने इन तीनों साप्ताहिक पत्रोंको अपने पत्र- व्यवहारका जरिया बना लूं। ये पत्र, जैसा कि एक मित्रने एक बार ठीक ही कहा था, समाचारपत्र नहीं बल्कि मेरे विचारपत्र हैं। दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंको श्री एन्ड्रयूजके द्वारा भी मेरे सन्देश मिल चुके हैं, लेकिन ये मित्र (जिन्होंने भूल जानेकी शिकायत की है) चाहते हैं कि मैं परम माननीय श्रीनिवास शास्त्रीकी मारफत विशेष सन्देश भेजूं। मैं इस अनुरोधका अभिप्राय समझता हूँ। इन भाइयोंके इस पत्रसे मुझे उन दिनोंकी याद हो आयी जब गोखले दक्षिण आफ्रिकामें थे। उप- निवेशोंमें जन्मे भारतीय गोखलेके साथ मेरे सम्बन्धको जानते हैं और उनका मुझसे यह आशा करना ठीक ही है कि अपने विचारों और भावोंको उनतक पहुँचानेके लिए मैं श्रीनिवास शास्त्रीका उपयोग करूँ। निस्सन्देह उपनिवेशोंमें पैदा हुए हिन्दुस्तानी तथा दक्षिण आफ्रिकाके अन्य मित्रगण श्रीनिवास शास्त्रीसे जितना चाहते हैं उतना पा लेंगे।

मैं ये पंक्तियाँ श्रीनिवास शास्त्रीसे मिलनेके पूर्व लिख रहा हूँ। हम लोग दक्षिण आफ्रिकाके पूरे सवालपर विचार करेंगे सिर्फ इसी पहलूसे नहीं कि दक्षिण आफ्रिकाकी सरकार क्या-क्या कर सकती है और क्या-क्या नहीं बल्कि इस पहलूसे भी कि भारतीय लोग (जिनमें उपनिवेशोंमें पैदा हुए भारतीय भी शामिल हैं) क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते। लेकिन हिन्दुस्तानियोंसे एक बात में खुले तौरपर कह देना चाहता हूँ कि वे अपनी इस प्रवृत्तिसे सावधान हो जायें कि हम तो उन हिन्दुस्तानियोंसे जुदा हैं जो भारतसे आकर महज बस गये हैं, और चूंकि हमारी पैदाइश दक्षिण आफ्रिकामें हुई है इसलिए हमको खास हक्क मिलने चाहिए। वे याद रखें कि बावजूद इसके कि वे दक्षिण आफ्रिकामें पैदा हुए हैं वे हिन्दुस्तानी हैं और हर सूरतसे हिन्दुस्तानी रहेंगे। इसलिए उनका फर्ज है कि वे अपने-आपको सिर्फ आकर बसे हुए हिन्दुस्तानियोंके साथ पूरे तौरसे मिला दें और जहाँतक मुमकिन हो हर तरीके से उनके साथ मिलजुलकर काम करें। ऐसा करनेसे वे अपनी तथा अपने देशकी सेवा करेंगे। उन्हें उस कामको याद रखना चाहिए जो कि उन्होंने १८९९ में बोअर युद्धमें स्ट्रेचर बेयरर्स कोर (आहत सहायता सेवा दल) में तथा १९०५ से १९१४ के बीच चलनेवाले सत्याग्रह आन्दोलनके दिनोंमें निःस्वार्थभावसे और बड़ी बहादुरीके साथ किया था। उस समय प्रवासी भारतीयोंसे अपनेको अलग करनेका, या केवल अपने लिए विशेष अधिकार माँगनेका किसीके मनमें खयाल भी नहीं था। अगर वे इस मौकेको हाथसे न जाने देंगे तो उनके सामने उज्ज्वल भविष्य है। अगर वे हिन्दुस्तान के सर्वोत्कृष्ट गुणोंका परिचय देंगे और पाश्चात्य सभ्यताके सम्पर्क में आकर वे