पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
नौ

श्रद्धा और सदाचारका समावेश है—कर्म जहाँ ज्ञानका पोषक है और ज्ञान कर्मका मार्गदर्शक। मतलब यह है कि धर्म कोरा बाह्योपचार या निर्दिष्ट थोथा कर्म-मात्र ही नहीं होता। यों तो "प्रवृत्ति मात्र कर्म है" (पृष्ठ ३४८)। श्वास रोकनेका इरादा करनेमें भी कर्म है । कर्मका अनारम्भ भी कर्म है (पृष्ठ १४७)। जीनेकी क्रिया भी कर्म है। ... कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता” (पृष्ठ १९७)।

अतः कर्मसे चूंकि छुटकारा ही नहीं है, 'गीता'ने उसे ज्ञान और भक्तिसे समन्वित कर दिया है। "गीता" कर्म-प्रधान हो, ऐसा नहीं है। ज्ञान-प्रधान हो, यह भी नहीं है। और भक्ति प्रधान हो, सो भी नहीं है। . . . कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों जरूरी हैं और अपने-अपने स्थानपर ये सभी चीजें प्रधान भी हो जाती हैं" (पृष्ठ ३४८)। यों अपनी जगहपर ज्ञान और कर्म दोनों ही श्रेष्ठ हैं, पर व्यवहारमें एकके बिना दूसरा काम नहीं दे सकता। कर्मके बन्धनोंको तो केवल ज्ञान ही नष्ट कर सकता है और उसे अकर्म में परिणत कर सकता है। पर ऐसा कर सकने में ज्ञान तभी समर्थ हो पाता है, जब वह बौद्धिक धरातलसे उतरकर हृदयमें अवगाहन करे और जीवनकी खरी अनुभूति बन जाये। थालीमें रखा अथवा पेटमें उतरा हुआ भोजन भी भूखको शान्त नहीं कर सकता। वास्तवमें पेटमें पहुँचकर उसके पचने और खून बन जानेके बाद ही भूख शान्त होती है” (पृष्ठ २०६)।


हमें अपने स्वधर्मके लिए — हमारी आध्यात्मिक भूखको शान्त करनेवाली इस दैनिक खुराककी खोजमें — कहीं भटकनेकी आवश्यकता नहीं है। वह तो हमारे लिए परोसी ही रखी है। वह है "अमुक क्षणमें प्राप्त कार्य। हमें किसी न किसी द्वारा सौंपा हुआ काम करना है" (पृष्ठ ३६३)। यह हमें सहज रूपमें और "अनायास ही प्राप्त रहता है। अनायास प्राप्त हमारा यह धर्म ही हम अच्छी तरह कर सकते हैं" (पृष्ठ ३६०)। अनासक्त भावसे और बुद्धिपूर्वक स्वधर्मका निरन्तर पालन ही कर्म-योग है। यही "राजमार्ग है, सहज मार्ग है, राजयोग है" (१२२)।

यह आध्यात्मिक साधना, यह राजयोग कोई विशेष धार्मिक कृत्य नहीं है; इसका तो "व्यवहारके साथ निकटका सम्बन्ध है। जिसका व्यवहारमें उपयोग नहीं हो सकता, वह धर्म नहीं है, अधर्म है। पाखाना भी साफ करना है, तो धर्म-वृत्तिसे ही करना है” (पृष्ठ १५०)। परन्तु 'गीता' का कर्म कोई "जोर-जबरदस्तीसे किया गया कर्म नहीं है। उसकी पृष्ठभूमिमें. ... ज्ञान तो होना ही चाहिए" (पृष्ठ३४८)।

जो कर्म विवेक और संकल्प पूर्वक किया जाता है और आत्मार्थं होता है वही कर्म खरा अकर्म बन जाता है। "कर्मके फलका त्याग करना अर्थात् दूसरोंके लिए कर्म करना हो तो हम उसमें घोड़ोंके-जैसे जुट जायें और अगर अपने लिए करना हो तो निःस्पृह भावसे जड़ होकर उसे करें। यह एक हार्दिक स्थिति है, मनकी भावना है" (पृष्ठ २०५)।

यज्ञ तो वह कर्म है जो परोपकारार्थ किया जाता है, अतः "यज्ञके अर्थ की गई हिंसा, हिंसा नहीं है" (पृष्ठ ३४९)। यह यज्ञ-भावना हो तो कर्मको अकर्ममें रूपान्तरित कर देती है, यहाँतक कि हिंसाको भी अहिंसामें परिणत कर देती है। ऐसी अहिंसाका