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अनोखे विचार

उदाहरण ही वास्तविक चीज है। कोई सिद्धान्त गलतफहमी, निन्दा और दण्ड, यहाँ तक कि मृत्युके सामने भी टिके रहकर शक्ति हासिल कर लेनेपर ही फैलता है। अस्पृश्यता और दूसरी बातोंके बारेमें भी यही बात सिद्ध होगी। लेकिन आइए, हम जरा इन शिक्षकोंकी दलीलोंपर भी विचार करें।

पहली बात तो यह कि उन्होंने बहुत ही बेढंगी उपमा ढूंढ़ी है। मुझे नहीं मालूम, कौन लोग मुझे छूते या मेरे पास आते डरते हैं। बल्कि जब कभी में दौरेपर निकलता हूँ, तब मेरा स्पर्श करनेके लिए लालायित भीड़के कारण मुझे परेशानी होती है। मुझे तो वे स्नान करते समयतक भी एकान्त नहीं देते।

दूसरे, अगर हमारे अछूत देशवासी, ऊँची जातिवालोंको छूनेसे डरते हैं तो इसका कारण यह नहीं है कि ऊँची जातिवाले कुछ अधिक शुद्ध हैं, बल्कि यह है कि उन्हें सिखाया गया है कि वे ऊँची जातिवालोंको न छुएँ; और वे जानते हैं कि छूनेकी कोशिश करनेसे गाली या मार खानी पड़ेगी।

तीसरे, चारित्र्यके सम्बन्धमें अकारण ही अछूतोंको निम्न कोटिका मान लिया गया है। यदि उनके सारे समाजको लेकर देखा जाये तो हम देखेंगे कि अनुकूल परिस्थितियोंमें उन्होंने वैसी ही सच्चाई, शुद्धता और दूसरे सार्वजनिक या व्यक्तिगत गुणोंका प्रदर्शन किया है जैसा कि अन्य किसी समाजने।

ऐसा कहना कि अछूतोंको तथाकथित ऊँची जातिवालोंके बराबर पहुँचनेके लिए कई जन्म लेने पड़ेंगे, पुनर्जन्मके सिद्धान्तका दुरुपयोग करना है। 'गीता' हमें सिख लाती है कि किसी विद्वान् पण्डितके समान ही एक अछूतके लिए भी इसी जन्ममें मुक्ति प्राप्त कर लेना सम्भव है। ऊँची जातिवाले अगर सचमुचमें ही ऊँचे हैं तो उन्हें अछूतोंसे मिलने-जुलनेमें डरनेका कोई कारण नहीं है। ऐसा करनेसे ऊँची जाति-वालोंका तो कुछ बिगड़ेगा ही नहीं, साथ ही अछूतोंको उनके साथ मिलने-जुलनेसे बड़ा लाभ पहुँचेगा। किन्तु यह उसी हालत में सम्भव है, जब वे सेवाका भाव लेकर अछूतोंसे मिलें, न कि महज मिलने-जुलनेके लिए; क्योंकि [ साधारण ] मेल-जोलमें तो गुण और दुर्गुण दोनोंका परस्पर आदान-प्रदान होता है। अगर में सुधारक बनकर शराबखाने में इस नीयतसे जाता हूँ कि शराबीकी बुरी आदत उससे छुड़ाऊँ, तो मैं वहाँ जाकर अपवित्र नहीं हो जाता; किन्तु यदि में सिर्फ किसी दोस्तका साथ देनेके लिए, और मित्रके आग्रह अथवा शराबखानेके प्रलोभनोंसे बचनेका दृढ़ निश्चय किये बिना शरावखानेमें जाऊँ तो जरूर ही अपवित्र हो जाऊँगा।

शिक्षकोंने चारित्र्यपर आहारके प्रभावकी जो दलील दी है, वह भी अनोखी ही है। चूंकि मैं खुद भोजनमें सुधारके प्रयोग करता रहता हूँ, इसलिए बहुतसे मित्र, भोजन विषयक सुधार और उसे सादासे-सादा बनानेके मेरे उत्साहके कारण मुझे आधा पागल समझते हैं। मगर मेरी समझमें ये शिक्षक भी भोजन और चरित्रपर पड़नेवाले उसके प्रभावपर जरूरतसे ज्यादा जोर दे रहे हैं। अगर ऐसे कार्यकर्त्ताके मिलनेतक, जो किसी प्रकारका मीठा-खट्टा न खाते हों और भोजन सम्बन्धी किसी पक्के नियमका पालन करते हों, सारे सार्वजनिक काम बन्द रखे जायें, तब तो फिर