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‘८६. 'गीता - शिक्षण’[१]

[१]

प्रस्तावना

बुधवार, २४ फरवरी, १९२६

पण्डितजीने[२] जो श्लोक[३] सुनाया वह गीता-अभ्यासकी कुंजी है। इसमें प्रार्थना है, और एक हठ भी है। कहा गया है कि "तू विष्णु हो, त्रिपुरारि शिव हो, चाहे जो हो, यदि तू राग-द्वेषसे मुक्त है तो तुझे मेरा नमस्कार है।"

'महाभारत' कोई ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं है, धर्म ग्रन्थ है। किसी भी घटनाका वर्णन कौन कर सकता है? अपने द्वारा देखी हुई पानीकी एक बूंदका हूबहू वर्णन करनेकी सामर्थ्य भी आदमीमें नहीं है। भगवानने उसे ऐसा ही लाचार बनाया है; ऐसी अवस्थामें घटित घटनाका पूरा वर्णन तो कौन कर सकता है। तिसपर इस युद्धमें लड़नेवाले व्यक्ति थे एक ओर धर्म, वायु, इन्द्र और अश्विनीकुमारसे उत्पन्न पाँच पुत्र और दूसरी ओर एक ही समय में उत्पन्न सौ भाई। क्या किसीने ऐसी सम्भावनाकी कल्पना भी की है? दुर्योधन अधर्मके रथपर बैठा हुआ था और अर्जुन धर्मके रथपर। इसलिए यह धर्म और अधर्मके बीचका युद्ध है। संजय एक भक्तहृदय व्यक्ति है। युद्ध दूरीपर हो रहा है और उसमें उसे देखनेकी शक्ति नहीं है, इसलिए व्यासने दिव्य चक्षु देकर उसे युद्धको देखनेकी शक्ति दी। परन्तु इसका क्या अर्थ है? इसका यही अर्थ है कि जो युद्ध हमारे शरीर स्थित अनेक कौरवों और पाँच पाण्डवोंके बीच चल रहा है, यह वर्णन उसीका है। हमारे ही अनेक गुणों और अवगुणोंने साकार रूप धारण कर लिया है और युद्ध उन्हीं गुणों और अवगुणोंके बीच हो रहा है। हिंसा-अहिंसा के प्रश्नको हम दूर ही रखें, इस द्वन्द्व में व्यक्तिका कर्त्तव्य क्या है, यह बतानेके लिए यह धर्म-ग्रन्थ लिखा गया है।

  1. श्रीमद्भगवद्गीतापर सत्याग्रह-आश्रम, अहमदाबादको प्रातःकालकी प्रार्थनाके समय गांधीजीने २४-२-१९२६ से २७-११-१९२६ तक प्रवचन दिये थे। ये प्रवचन महादेवभाई देसाई और एक अन्य आश्रमवासी पुंजाभाई द्वारा लिये गये नोटों के आधारपर नरहरिभाई परीख द्वारा सम्पादित किये गये और गांधीजीनुं गीताशिक्षण नामसे १९५५ में प्रकाशित हुए थे।
  2. नारायण मोरेश्वर खरे; आश्रमके संगीत-शिक्षक।
  3. विष्णुर्वा त्रिपुरान्सको भवतु वा ब्रह्मा सुरेन्द्रोऽथवा
    भानुर्वा शशलक्षणोऽथ भगवान् बुद्धोऽथ सिद्धोऽथवा।
    रागद्वेषविधातिमोहरहितः सत्त्वानुकम्पोद्यतो
    यः सर्वैः सह संस्कृतो गुणगणैस्तस्मै नमः सर्वदा॥