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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किक है। स्वयं दानवीर होनेके कारण अथवा दुर्योधनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होनेके कारण वह उसके पक्षमें सम्मिलित हो गया। कर्णके अतिरिक्त भीष्म और द्रोण-जैसे सत्पुरुष उस पक्षमें हैं; इससे प्रकट होता है कि खालिस पाप दुनियामें टिक नहीं सकता। जबतक उसे किसी प्रकारके धर्मका सहारा नहीं मिलता, उसका निर्वाह नहीं हो सकता। असहयोग में भी यही तत्त्व निहित है कि सरकारकी पाप-पूर्ण पद्धतिको भले आदमियोंका जो समर्थन मिल रहा है, वह उसीसे टिकी हुई है। यदि उसे उनका समर्थन मिलना बन्द हो जाये तो वह टिकी नहीं रह सकती। जिस तरह सरकारको बनाये रखनेके लिए भले आदमियोंके समर्थनकी आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार अपने पक्षको उत्तम प्रकट करनेके लिए दुर्योधनको भीष्म, द्रोण-जैसे भले आदमियोंकी आवश्यकता हुई।[१]

[ ४ ][२]

शनिवार, २७ फरवरी, १९२६

आज तो केवल

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥१०॥

अपर्याप्त और पर्याप्त शब्दों की ही चर्चा हुई।

अपर्याप्त और पर्याप्त इन दोनों शब्दोंके दो-दो अर्थ होते हैं; अपर्याप्त अर्थात्

(१) अमर्यादित अथवा अपरिमित, (२) अपूर्ण अथवा सीमित; और पर्याप्त अर्थात्

(१) मर्यादित और (२) पूर्ण अथवा असीमित।"[३]

दुर्योधनके मानसिक भावपर ही इसका अर्थ निर्भर करता है। मैंने अपर्याप्तके इन दो अर्थों में से 'अपूर्ण' अथवा असीमित' अर्थको स्वीकार किया है। बचपनसे ही मुझे यही अर्थ ठीक लगता रहा है। दुर्योधनके मनका भाव यह है कि हमारी सेनाके सेनापति भीष्मपितामह हैं और वह सेना परिपूर्ण शक्तिशाली नहीं है, जब कि पाण्डवोंकी सेनाके रक्षक भीम हैं और वह सेना पूर्ण है; क्योंकि भीष्मपितामह तो दोनों ही पक्षोंसे प्रेम करते थे इसलिए दुर्योधनके मनमें भय था कि भीष्मपितामह अपने पक्षकी ओरसे मनःपूर्वक युद्ध नहीं करेंगे।

[५]

रविवार, २८ फरवरी, १९२६

संस्कृत भाषामें प्रार्थना करना एक स्थूल बात है; धर्मका रहस्य हृदयके भीतर उतारना ही मुख्य उद्देश्य है। मैंने एक गँवार आदमी होते हुए भी 'गीताजी' पढ़नेका

  1. यहाँ पहले अध्यायके ९ श्लोक समाप्त हुए।
  2. १० वें श्लोकसे १६ वें श्लोकतक। मुख्य रूपते १० वें श्लोकके विषयमें ही बोले।
  3. अधिकांश टीकाकार अपर्याप्तका अर्थ अपरिमित और अजेय तथा पर्याप्तका परिमित और जीतनेमें सुगम करते हैं।