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'गीता-शिक्षण'

आग्रह क्यों मान लिया और महादेव[१] उससे इनकार क्यों करता है? मैंने यह जिम्मेदारी अपने ऊपर क्यों ली? मेरे मनमें पर्याप्त नम्रता है। में ऐसा मानता हूँ कि यों तो हम सभी अपूर्ण हैं किन्तु धर्म क्या है, इसे मैंने यथायोग्य जान लिया है और उसका आचरण भी किया है। यदि मेरे हृदयकी गहराई में धर्मभावना और प्रभु-भक्ति होगी तो मैं उसे आप लोगोंके भीतर भी जगा सकूंगा। जिस दीपकमें तेल और बत्ती हो उसीको जलाया जा सकता है, पत्थरको नहीं जलाया जा सकता। जिनके हृदय दीपकके समान होंगे, मेरी दियासलाईसे वे अपनेमें जोत जगा लेंगे और इसी तरह जिनमें कुछ तत्त्व होगा वे इस पठन-पाठनमें से कुछ ग्रहण कर लेंगे।

शब्दोंका हमारा उच्चारण ऐसा होना चाहिए कि उसे सुनते ही चित्त सहज ही प्रसन्न हो जाये। कल मैंने व्याकरणकी एक भूल कर दी थी। “शंखम् दध्मौ प्रतापवान्” शब्द-समूहमें मैंने 'प्रतापवान्' को 'शंख' के साथ जोड़ दिया, जोड़ना था उसे भीष्मपितामहके साथ। किन्तु मेरी संस्कृत तो एक गँवारकी संस्कृत है। मुझे उसका इतना ज्ञान नहीं है कि कुछ गलती होते ही वह मुझे खटक जाये अथवा वह मुझे कर्णप्रिय न लगे।

पाण्डवोंके पक्षमें शंख बजाये जा रहे हैं और संजय उनका वर्णन कर रहे हैं। "कैर्मया सह योद्धव्यम्": अर्जुन यह नहीं पूछता कि मुझे युद्ध करना है अथवा नहीं, बल्कि यह पूछता है कि मुझे किनके साथ युद्ध करना है। यदि उसे युद्ध न करना होता तो वह पहले ही दिन कृष्णसे कह देता कि मुझे तो युद्ध ही नहीं करना है। किन्तु उसके मनमें लड़नेके प्रति कोई वैराग्य नहीं था। लड़नेके लिए ही तो युधिष्ठिरसे आज्ञा लेकर वह इन्द्रके पाससे आयुध ले आया था। यदि बात ऐसी होती, तो कृष्ण अर्जुनसे कहते कि तुम जाओ और दुर्योधनको समझाओ। किन्तु परिस्थिति ऐसी थी ही नहीं। वनवासकी अवधि में भी अर्जुन युद्ध करता रहा था। जब विराट् राजापर दुर्योधनने आक्रमण किया तब उसने युद्ध किया था। लड़ाईमें तो वह डूबा हुआ था। उसके सामने प्रश्न यही था कि मुझे किन लोगोंसे लड़ना पड़ेगा। यह बात हमें भली-भाँति याद रखनी चाहिए।

[ ६ ]

मंगलवार, २ मार्च, १९२६

अर्जुन श्रीकृष्णसे प्रार्थना करता है कि आप मेरा रथ दोनों सेनाओंके बीच में ले जाकर खड़ा कर दें ताकि में देख सकूँ कि यहाँ कौन-कौन लड़नेके लिए आये हैं। वह देखता है कि वे सबके सब कुटुम्बी और मित्र हैं, जिन्हें एकाएक मारनेकी इच्छा नहीं हो सकती।

अर्जुन कहता है: "स्वजनोंको मारनेमें मुझे भलाई दिखाई नहीं देती।" यहाँ जोर 'स्वजन' पर है। तीनों लोकोंके राज्यके लिए भी मैं इनसे नहीं लड़ंगा। तब फिर

  1. गांधीजीने कहा था कि महादेव देसाई श्लोकोंका पठन और उनकी व्याख्या दोनों अधिक अच्छी तरहसे कर सकते हैं, किन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं हुए।