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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जमीनके छोटे-मोटे टुकड़ोंके लिए तो लड़ ही कैसे सकता हूँ। यह इसलिए कि पाण्डवोंकी माँग पाँच ही गाँवोंकी थी। अर्जुन बार-बार पूछता है, स्वजनोंकी हत्यासे सुख किस प्रकार मिल सकेगा ? वह जो कुछ कहता है उसका सार यही है कि "कैर्मया सह योद्धव्यम्" — मुझे किन लोगोंके साथ लड़ना है? अर्जुनको दुःख मारनेमें नहीं; किन्हें मारना पड़ेगा यह सोचकर दुःख है। अर्जुनके मुखसे बार-बार गीताकारने स्वजन शब्द कहलवाकर यह दर्शाया है कि वह कैसा मोहग्रस्त और मूर्च्छाग्रस्त हो गया था। अर्जुन लौकिक दृष्टिसे बातचीत कर रहा है और कृष्ण उसके लौकिक तर्कोंका ही खण्डन करना चाहते हैं । यहाँ यही सूचित किया गया है।

अपने कुटुम्बीजनों के विरोधमें अदालतबाजीतक की संसार निन्दा करता है। अर्जुन थर्रा उठा है। श्रीकृष्ण उसकी इस घबराहटको एकदम समाप्त करनेके लिए आतुर नहीं हैं। व्यवहारमें भी हमें जो यत्किचित् त्याग करना पड़ता है, यदि परमार्थके मार्ग में हम उतना भी त्याग न करें तो धर्म अधर्म बन जाता है। लौकिक व्यवहारमें लोकापवादके भयसे हम कुछ चीजें करना टालते हैं, जिनसे साधारण लोग भी बचना चाहते हैं, फिर यहाँ प्रश्न उन बातोंको टालनेका नहीं है, यहाँ तो हजारों-लाखों आदमियोंको मारने की बात है। अर्जुन ऐसा किस तरह करे? किन्तु इस प्रश्नको लेकर अर्जुनका कृष्णके पास जाना आवश्यक नहीं था । ऐसी बात तो कोई हमारे पास आकर कहे, तो हम भी यही कहेंगे कि 'मत लड़ो।' हमारा कलियुगका धर्म भी जब यह कहता है कि ऐसी निरर्थक लड़ाई नहीं करनी चाहिए, तब प्रश्न उठता है कि अर्जुन श्रीकृष्णके पास क्यों गया और उन दोनोंके बीच इतना लम्बा-चौड़ा संवाद क्योंकर चला। इसपर विचार किया जाना चाहिए। इस तरह हम 'गीता' के शिक्षणको ठीक-ठीक तभी समझ सकते हैं जब हम लेखकके उद्देश्य और घटनासे सम्बन्धित परिस्थितिपर पूरी तरह विचार कर लें। किन्तु यह अन्तिम श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है इसलिए इसपर हम कल विचार करेंगे। क्योंकि उठाये गये सारे तर्कोंका आधार इसी श्लोकपर है।

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बुधवार, ३ मार्च, १९२६

साधारणतया प्रचलित लोक व्यवहारको उचित गिना जाता है । यदि हम यहाँ अथवा कहीं और ऐसा कोई आदमी देखें जो अपने लौकिक अधिकारको छोड़ देता है, या जो अपने आत्मीयोंको ही नहीं, परायोंको भी क्षमा कर देता है, तो हम उसे अच्छा आदमी मानते हैं । यदि हम किसी चोर अथवा अन्य किसी आततायीको मारें-पीटें नहीं, उसे दण्ड न दें, उसे समझायें और अपनी वस्तु वापस लेकर उसे छोड़ दें तो इसे भलमनसाहत कहा जायेगा, अहिंसा माना जायेगा और इसके विरुद्ध क्रियाको हिंसामें गिनेंगे । ऐसा होते हुए भी श्रीकृष्ण अर्जुनको इस प्रकारके तर्क-वितर्क करनेसे रोकते हैं, यह क्या बात है ? 'भगवद्गीता' में प्रत्यक्ष रूपसे जो उलटी सीख है, वह किस लिए दी गई ? श्रीकृष्ण अर्जुनको 'क्लीव' और दुर्बल क्यों कहते हैं?