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'गीता- शिक्षण'

पहले श्लोकसे लेकर अन्तिम श्लोकतक 'गीता' में सुसंगति है। इसीलिए हम इसका मनन करते हैं और आशा करते हैं कि हमें उससे मोक्षके मार्गका दर्शन होगा । इसलिए हमें सोचना चाहिए कि अर्जुन जो कुछ कहता है, वह ठीक है अथवा उसमें कोई त्रुटि है।

कहीं ऐसा न हो जाये कि 'खोदें पहाड़ और निकले चुहिया', इसीलिए प्रत्येक अध्यायकी समाप्तिपर कृष्ण भगवानने[१] इसे उपनिषद् कहा है, योगशास्त्र कहा है और ब्रह्मविद्या कहा है और इस पहले अध्यायको अर्जुन-विषाद-योग कहा है ।

इस बातपर विचार करना आवश्यक है कि अर्जुनने जो प्रश्न किया सो क्या है और वह किस अवसरपर किया गया। अपने रथके दोनों सेनाओंके बीचमें आ खड़े होनेके बाद, उसने कहा कि वह उन लोगोंको देख लेना चाहता है जिनके विरोध में उसे लड़ना पड़ेगा। उन्हें देखते ही उसे मोह उत्पन्न हुआ, और वह घबरा गया । उसका पूर्व इतिहास तो यह है कि वह बड़ा भारी योद्धा है और वह लड़नेके लिए तैयार हो जानेपर धर्मराजकी तरह तर्क-वितर्क लेकर नहीं बैठता। पहले तो उसने लड़ते समय कभी विरोधीके कुटुम्बी होनेका विचार ही नहीं किया । १४ वर्षोंके वनवासकी अवधिमें भी उसने कौरवोंके द्वारा अपने तिरस्कारको धर्मराजके समक्ष खुलकर व्यक्त किया है। इतना ही नहीं, युद्धमें विजय प्राप्तिका मुख्य आधार ही उसपर है । भीम साहसी और शक्तिशाली है किन्तु जो शक्ति अर्जुनमें है वह उसमें नहीं है । चौदह वर्षतक युद्धकी तैयारी चलती रही और उस सारी अवधिमें सभीने अर्जुनको प्रमुखता दी । जब विराट्नगरमें युद्ध हुआ तब छद्मवेषधारी अर्जुनने स्वयं समरांगणमें जानेकी माँग की। जिस व्यक्तिको युद्ध करनेमें इतना आनन्द आता हो वह ऐसा किस लिए चाहता है कि दोनों पक्षोंके बीचमें उसका रथ खड़ा किया जाये और वह देखे कि युद्ध करनेकी इच्छासे कौन-कौन लोग इकट्ठा हुए हैं। वह तो सभी व्यक्तियोंसे अच्छी तरह परिचित है। वह किस लिए कृष्णके साथ तर्कमें पड़ता है और जो-कुछ उसने कहा है वह सब किसलिए कहता है । वह चाहता तो तुरन्त वहाँसे चल देता । अर्जुनका सैन्य बल कम है, सात अक्षौहिणी और कौरवोंकी सेनाकी संख्या ११ अक्षौहिणी है। अब मान लीजिए कि अर्जुन युद्धसे पराङ्मुख होना चाहता है । वह सोचता है कि उसके शत्रु स्वभावसे दुष्ट हैं और पापी हैं, तथापि वे उसके सगे-सम्बन्धी हैं और इसलिए वह उनका वध नहीं कर सकता। यदि वह रणक्षेत्रसे चला जाये तो उसके पक्षके असंख्य मनुष्योंका क्या होगा ? यदि अर्जुन उन्हें छोड़कर चल दे, तो क्या कौरव उनपर दया दिखायेंगे । यदि अर्जुन युद्ध से पराङ्मुख हो जाता तो पाण्डव सेनाका विनाश निश्चित था । तब फिर उन सबके बाल-बच्चोंका क्या होता ? मैंने 'नवजीवन' में यूरोपके युद्धका विवरण प्रकाशित किया है, सो सकारण है। उससे हमें महाभारतकी लड़ाईका भान होता है। मैंने वह विवरण इसीलिए दिया है कि सभी लोग यह समझ जायें कि महायुद्धसे समूची प्रजाकी क्या हालत हो जाती है और उसकी कितनी खराबी होती है। यदि अर्जुन युद्धके मैदानसे भाग

  1. अभिप्राय स्पष्ट ही महाभारतकार महर्षि व्याससे है, कृष्णसे नहीं ।