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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाता तो जिन आपत्तियोंका उसे भय था, वे सब टूटे बिना न रहतीं । कुल-क्षय होता और कुल-धर्म तथा जाति-धर्मका नाश हो जाता। इसलिए लड़े बिना तो छुटकारा था ही नहीं। यह तो लड़ाईका स्थूल अर्थ हुआ मानव शरीर क्षेत्रकी बातपर हम बादमें आयेंगे ।

मैं फीनिक्समें 'गीता' के विषयमें चर्चा किया करता था । उस समय मैंने क्या कहा था सो में कल बताऊँगा ।

[८]

अध्याय २

गुरुवार, ४ मार्च, १९२६

श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं: "हृदय दौर्बल्य" छोड़कर खड़ा हो जा। उसकी मानसिक स्थिति 'पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस' के भक्तराज (क्रिश्चियन) के जैसी है। जो अर्जुन सब कुछ छोड़ने के लिए कटिबद्ध है, कृष्ण उससे ऐसे वचन क्यों कहते हैं?

मैं लन्दन में अनेक क्रान्तिवादियोंसे विचार-विनिमय करता था। श्यामजी कृष्णवर्मा[१] और सावरकर[२] आदि मुझसे कहा करते कि आपका कथन 'गीता' और 'रामायण' के कथनके विरुद्ध ही है । उस समय मुझे ऐसा लगता कि यदि व्यास मुनिने ब्रह्मज्ञानका उपदेश करनेके लिए ऐसे युद्धके दृष्टान्तकी योजना न की होती तो कितना अच्छा होता ! क्योंकि जब अच्छे-अच्छे विद्वान् और गहराईसे विचार करनेवाले व्यक्ति ही 'भगवद्गीता' का ऐसा अर्थ निकालते हैं तो साधारण आदमीके विषयमें क्या कहा जा सकता है। जिसे सर्वशास्त्रोंका दोहन कहा गया है — उपनिषद् कहा गया है। यदि उसका ऐसा उलटा अर्थ निकाला जा सकता है तो व्यास भगवानको चाहिए था कि वे कोई दूसरा योग्य दृष्टान्त चुनकर यह उपदेश देते।

अर्जुन और कृष्णका उन्होंने ऐसा सजीव चित्रण किया है कि हम उन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति ही मानते हैं । तिसपर यह इतिहासकार नगर, जाति और व्यक्तियों आदिका विवरण देते हुए कहता है कि में उस कालके इन श्रेष्ठ पुरुषोंको वर्णित कर रहा । यह सब सोचकर मेरे मुँहसे निकल गया कि ऐसा भगवान् व्यासने न किया होता तो अच्छा होता। कहा जा सकता है कि यह तो छोटे मुँह बड़ी बात हुई । किन्तु सत्यसेवक और क्या कर सकता है? यदि दोष दृष्टिगोचर हो तो वह क्या करे? दोषका आभास होनेपर यदि वह नम्रतापूर्वक उसकी ओर इशारा करे तो यह अपराध नहीं है। कितने ही वर्षोंतक यह बात मेरे मनमें पड़ी रही। फिर मैंने सोचा कि मुझे सम्पूर्ण 'महाभारत' पढ़ना चाहिए। 'गीताजी' के आसपासके वातावरणको समझने के लिए और उस वातावरणमें व्याप्त सुगन्ध अथवा दुर्गन्धको जाननेके लिए मैंने 'महाभारत' पढ़नेका निश्चय किया । मैंने जेलकी चहारदीवारीमें रहते हुए 'महा- भारत का गुजराती अनुवाद प्राप्त किया और उसे पढ़ा। मैंने देखा कि व्यास युद्धको

  1. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ ८९-९० ।
  2. विनायक दामोदर सावरकर ।