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'गीता-शिक्षण'

त्याज्य नहीं मानते थे और इसलिए उन्होंने अपनी दृष्टिसे जो दृष्टान्त लिया है वह अतिशय सुन्दर दृष्टान्त है। जिस तरह 'ईसप' की कहानियों और 'पंचतन्त्र' की कहा—नियोंमें पशु-पक्षियोंके संवादको आधार बनाकर नीतिकी शिक्षा दी गई है, उसी तरह 'महाभारत' में भी गुणावगुणोंको साकार बनाकर उत्तम ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। युद्धका वर्णन तो निमित्त मात्र है। 'महाभारत' युद्धका विवरण प्रस्तुत करनेकी दृष्टिसे नहीं लिखा गया । इस प्रसंगके निमित्त 'गीता' द्वारा ऐसा सुन्दर ज्ञान देनेका अवसर सघ गया है। यदि कोई सावधान न रहे तो उसे भ्रम हो ही सकता है। धर्म मात्रके विषय में यह बात ठीक है कि व्यक्ति सावधान न रहे, तो वह भ्रममें पड़ सकता है । कोई बिना सोचे प्रह्लादका अनुकरण करने लगे तो भी ऐसा ही होगा। अधिकारके बिना शास्त्रोंका पठन-पाठन न करनेके लिए कहा गया है — सो इसीलिए कहा गया है। धर्मकी पहेलीको व्यक्ति उतावलीमें हल नहीं कर सकता । यदि उसने यम, नियम आदिका पालन करके अधिकार प्राप्त न कर लिया हो तो वह इस पहेलीको सुलझा नहीं सकता। इन साधनोंके बिना यदि हम ऐसी कोई पुस्तक एकदम हाथमें ले लें तो अन्धेरे गड्ढे में जाकर गिरेंगे। यदि कोई बिना वनस्पतियोंको देखे वनस्पति-शास्त्रका अभ्यास करना चाहे, तो उसकी जो हालत होगी, उसकी तुलना इससे की जा सकती है।

अर्जुनके लिए 'गुडाकेश' शब्दका प्रयोग किया गया है। गुडाकेशका अर्थ होता है। निद्राको जीतनेवाला, सावधान। और इसलिए हमें युद्धके इस दृष्टान्तपर सावधानी के साथ विचार कर लेना चाहिए। पहली बात तो यह है कि अर्जुन स्वजन और पर जनमें भेद करता है। उसके मनमें यह एक मोह उत्पन्न हो जाता है कि परजन आततायी न हो तो भी उसे मारा जा सकता है और स्वजनको आततायी होनेपर भी नहीं मारा जा सकता। यदि मेरा पुत्र शराबी हो तो भी उसे मेरी सम्पत्ति मिल जायेगी। पराया लड़का बिगड़ा हुआ हो तो मैं 'नवजीवन' में उसकी आलोचना कर डालूँगा। किन्तु अपने लड़केके साथ वैसा नहीं करूँगा। 'गीता' कहती है कि नहीं, यह ठीक नहीं है। दूसरोंकी तरफ अँगुली उठानेका हमें अधिकार नहीं है। पहले अपना दोष देखना सीखो। अर्जुन द्रोणाचार्यका सबसे अच्छा शिष्य था। भीष्मने तो उसे इतना स्नेह दिया था, मानो वह उनका अपना पुत्र ही हो। अर्जुनको चाहिए कि वह उन्हें भी मारने को तैयार रहे। यह उसका कर्त्तव्य हो गया है कि वह इन दोनोंके साथ असहयोग करे, क्योंकि वे असत्यके पक्षमें जा बैठे हैं। यदि तुम क्षत्रिय हो, तुम्हारे हाथमें तलवार है और तुम्हें अपराधीका गला काटना है, तो फिर वह अपराधी सगा बाप ही क्यों न हो, तुम्हें तलवारसे उसकी गरदन उतारनी ही पड़ेगी। इसीलिए श्रीकृष्ण अर्जुनसे अपने-आपको मोहसे मुक्त करनेके लिए कहते हैं- इन सबका मोह छोड़ने के लिए कहते हैं । 'नवजीवन' के संचालकको हैसियतसे मेरा क्या कर्त्तव्य है? दूसरे किसी लड़केने चोरी की हो तो उसकी डौंड़ी पीटू और मेरे आश्रमके किसी बालकने चोरी की हो, तो उसे छिपाऊँ? नहीं, 'गीताजी' स्वजन और परजनका भेद नहीं कर सकती। यदि मारना ही है तो स्वजनको पहले मारो। यहाँ श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं कि तू 'मेरे कुटुम्बी, मेरे कुटुम्बी' किसलिए कह रहा है।