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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'गीताजी' अर्जुनको अपने और परायेके मोहसे मुक्त करना चाहती हैं। जब वह मारनेका निश्चय कर चुका है तब अमुकको नहीं मारना है, ऐसा विचार ठीक नहीं हो सकता। यह मारना कोई स्वार्थको लेकर नहीं है। रामके हाथों रावणका विनाश होना ही था। रामने ऐसे प्रज्ञावादका सहारा क्यों नहीं लिया? वे भली-भाँति जानते थे कि रावण सीताको कोई हानि नहीं पहुँचा सकता, किन्तु उन्होंने यह बात नहीं सोची। और हम भी यह नहीं कहते कि वे सीताके लिए लड़े, बल्कि यही कहते हैं कि उन्होंने रावणका संहार करनेके लिए युद्ध किया।

हम अहिंसक भले ही हों, किन्तु यदि हम कायरतावश दीनोंकी रक्षा न करें, तो यह अनुचित होगा। यदि अर्जुन अपने और परायेका भेद भूल जाता और उसके कण-कण में ऐसी अहिंसा व्याप्त हो जाती जिससे वह दुर्योधनका हृदय परिवर्तन कर सकता, तब तो वह स्वयं श्रीकृष्ण ही हो जाता। किन्तु वह तो दुर्योधनको दुष्ट मानता था। सम्भव है कि मैं साँपसे मित्रता करने चला जाऊँ किन्तु यदि साँप आपमें से किसीको काटने आये तो आपकी रक्षाके लिए मुझे साँपकी हत्या करनी ही चाहिए। अर्जुनके सामने दो ही धर्म उपस्थित थे: या तो वह विपक्षियोंका वध करे अथवा उनका हृदय-परिवर्तन करे। यहाँ तो परिस्थिति यह थी कि यदि अर्जुन शस्त्र- संन्यास कर देता तो उसके पक्षका सत्यानाश हो जाता । उस समय यदि वह युद्ध न करता तो परिणाम भयंकर होता। इसलिए व्यासजीने यह दृष्टान्त देकर उचित ही किया है। जो व्यक्ति युद्धमें विश्वास करता है और उसमें हिसाके होते हुए भी यह मानता है कि युद्धमें की हुई हिंसा हिंसा नहीं होती, यहाँ ऐसे ही व्यक्तिसे हिंसा करनेके लिए कहा गया है।

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शुक्रवार, ५ मार्च, १९२६

अर्जुन श्रीकृष्णसे यह नहीं पूछता कि मेरा हिंसा करना उचित है या हिंसा न करना। वह तो यही पूछता है कि स्वजनोंको मारना उचित है अथवा नहीं। यह प्रश्न पक्षपातसे उत्पन्न प्रश्न है। आत्मीय और पूज्य ऐसे भीष्म और द्रोण दो बुजुर्ग उसकी आँखोंमें तैर रहे हैं। इन्हें किस तरह मारा जा सकता है ? जिसके सामने हिंसा-अहिंसाका धर्म-संकट नहीं, बल्कि सवाल केवल यह है कि वह किसे मार सकता है और किसे नहीं, उसको तो स्थूल बुद्धिसे केवल एक ही उत्तर दिया जा सकता है। किन्तु अर्जुन-जैसे ईश्वरसे डरकर चलनेवाले व्यक्तिको विचार करना ही पड़ता है। ऐसे सूक्ष्म प्रश्नका समाधान कि मुझे गायत्री मन्त्रका जाप करते रहना है अथवा किसी दुःखीकी पुकार सुनकर मददके लिए दौड़ पड़ना चाहिए, सूक्ष्म बुद्धिवाला व्यक्ति ही कर सकता है। ईश्वरसे डरनेवाले व्यक्तिके लिए ऐसे प्रश्नोंका समाधान पानेमें देर नहीं लगती। महाभारतकारने 'महाभारत' में पद-पदपर सूक्ष्म प्रश्नोंकी चर्चा की है। व्यक्तियोंके उदाहरण लेकर उन्होंने ज्ञान गूंथा है। सम्भव है इसमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी ले लिये गये हों, किन्तु उनका विवेचन तो कवि और ऋषिगणोंकी परम्पराके