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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अप्रमेय — जिसका कोई प्रमाण नहीं है। अर्थात् जिस तरह धुएँको अग्निका प्रमाण माना जाता है, उस तरह जिसका कोई प्रमाण नहीं है।

'तस्माद्युध्यस्व भारत' — इसलिए हे भारत, युद्ध इन सबके शरीर नाशवन्त हैं, इसलिए इन्हें मारा जा आश्रमके सब स्त्री और बच्चों को मार डालना उचित है? क्या उस अवस्थामें यह कहा जायेगा कि नाशवन्त शरीरवालोंको मारकर मैंने 'भगवद्गीता' के कथनानुसार आचरण किया है। हमारे चौकीदारने एक व्यक्तिकी हत्या कर दी, इसलिए हम मानते हैं कि चौकीदार [ क्रोधमें ] पागल हो गया था। किन्तु यदि वह अपने कामके समर्थनमें 'गीता' के इस श्लोकका हवाला देता तो हम उसे क्रूर मानते। जो प्रज्ञावाद[१] करता हुआ ऐसी दुष्टता करे उसे हम क्या कहें? इसके स्पष्टीकरणके लिए हमें पहला अध्याय देखना पड़ेगा। अर्जुनने कहा कि स्वजनोंका वध करके तो मैं सुरोंके राज्यकी भी इच्छा नहीं करता। किन्तु स्वजनोंका वध तो उसे करना ही है, क्योंकि उसने मारनेका धर्म स्वीकार किया है। यह 'युद्धस्व' वाली बात उसपर लागू होती है, दूसरोंपर लागू नहीं होती। इस श्लोकके द्वारा श्रीकृष्ण अर्जुनका मोह दूर कर रहे हैं। हरिश्चन्द्रके सामने तारामती-जैसी सती स्त्रीका वध करनेका धर्म आ खड़ा हुआ। उसके मंगल-सूत्रपर जब दृष्टि पड़ी तब उसका हाथ काँप उठा। यदि कोई और स्त्री होती तो सम्भव है उसका हाथ न काँपता। ऐसे अवसरपर यदि हाथ कांपता है तो कृष्ण भगवान् उसके पास जाकर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं: इसे मारना तेरा कर्त्तव्य है। वे उससे कहते हैं कि तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आजतक तू व्यक्तियोंको मारता रहा। आज अपनी पत्नीके ममत्वके कारण तू पराङ्मुख हो रहा है। ऐसा करना अपने धर्मको डुबोना है। श्रीकृष्ण उससे कह सकते हैं कि तेरी और तेरी स्त्रीकी देह नाशवन्त है। जिसे दूसरेका गला काटनेकी बजाय अपना गला काट लेना अधिक ठीक लगता है, कृष्ण उससे कह सकते हैं कि मारना तेरा धर्म है।

कृष्ण इसके बाद दूसरा तर्क प्रस्तुत करते हैं:

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥(२,१९)

जो इसे (आत्माको ) हन्ता समझता है और जो इसे हत समझता है, वे दोनों ही नहीं जानते। न यह मारता है और न मारा जाता है।

आत्मा न मारता है और न मरता है। यह बात तो उसी व्यक्तिसे कही जा सकती है.....[२] यह तो घोड़ेके सामने गाड़ी रखने जैसा हुआ। इसी तरह यदि शरीर आत्माका संचालन करना चाहे तो यह सम्भव हो ही नहीं सकता। यदि कोई कहे कि ऐसा हो सकता है, तो वह प्रलाप करता है।

  1. १. अशोच्यानन्वशोचरत्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
    गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥ (२, ११)
  2. २. साधन-सूत्र में कुछ शब्द छूटे हुए हैं।