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'गीता-शिक्षण'

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शनिवार, १३ मार्च, १९२६

आज मैं.. को[१] 'गीता'का रहस्य सिखाऊँगा। मान लो कि तुम्हारे पिताजी शिक्षक हैं। तुम्हारा और... का[२] दोष समान है, किन्तु फिर भी तुम्हारे पिताजी को दण्ड देते हैं और तुम्हें छोड़ देते हैं, तो क्या यह ठीक होगा?" तुम जैसा बच्चा भी इस बात को समझ गया किन्तु अर्जुन इसे नहीं समझा। श्रीकृष्णने यही समझानेके लिए सारी 'गीता' अर्जुनको सुनाई।

जिसे डर लगता है, वह मारता है। जिसे मरनेका भय ही न हो, वह किसीको नहीं मारता। प्रार्थना सभा में 'गीता' के विषयमें क्या-कुछ कहा जा रहा है, जिनका इसपर ध्यान नहीं है, उनके विषयमें यही माना जाना चाहिए कि वे प्रार्थनामें उपस्थित नहीं हैं। जैसे हमारे घर किसी मेहमानके आनेपर यदि हम उसका आदर-सत्कार करें, उसे प्रेमपूर्वक घरके भीतर ले जायें, उसके हाथ-पाँव धुलवायें, स्वच्छ आसनपर बैठायें, उसे अच्छे-से-अच्छा, वह भोजन करायें जो हमने अपने लिए रख छोड़ा है और फिर बचा हुआ हम खायें, तभी कहा जायेगा कि हमने उसका आदर-सत्कार किया। और इसीको सत्याचरण भी कहा जायेगा। परन्तु जो व्यक्ति किसी अतिथिके आनेपर नाक-भौं सिकोड़ता है, प्रेमके साथ उससे नहीं बोलता, सामने जो थाली रखता है वह ठीक मँजी हुई नहीं होती, जो परोसता है, वह भी ताजा नहीं होता और एक बार परोसनेके बाद दुबारा पूछता भी नहीं, वह यदि इस सबके बाद कहे कि मैंने मेहमानको भोजन कराया है, तो वह भोजन कराना तो गिना ही नहीं जा सकता, बल्कि उसका अपमान करना कहा जायेगा। और इसलिए वह असत्याचरण भी कहा जायेगा। सड़ा–बासा अथवा उच्छिष्ट भोजन तो भिखारीको भी नहीं दिया जाना चाहिए। देनी ही हो तो अच्छी चीज ही देनी चाहिए। यदि नहीं देनी है तो समझदारीके साथ उसे समझा दिया जाना चाहिए कि दे नहीं सकते। ऐसा आचरण भी सत्याचरण कहलायेगा। इस तरह विवेकपूर्वक सत्य और असत्यका निर्णय किया जा सकता है।

न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न
हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ ( २,२०)

यह (आत्मा) न जन्म लेता है, न मृत्युको प्राप्त होता है और इसका भाव होनेपर पुनः अभाव नहीं होता। यह आत्मा अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुराण है। शरीरके नष्ट होनेसे नष्ट नहीं होता।

  1. २ व ३. साधन-सूत्र में व्यक्तियोंके नाम छोड़ दिये गये हैं।
  2. इस प्रश्नका उत्तर नकारात्मक मिलनेपर गांधीजीने आगेकी बात कही।