यह जो आत्मा है, इसका जन्म नहीं होता, यह मरता नहीं है। हो जानेपर ऐसा नहीं है कि फिर न हो। इन सभी गुणोंको अलग-अलग विशेषण देकर व्यक्त किया गया है। कहा गया है कि यह अज है, नित्य है, पुराण है। सब इस बातको जानते हैं। शरीर नष्ट होने के बाद भी आत्माका नाश नहीं होता। यह तो एक परम्परा- गत ज्ञान है। हरएक माता-पिताको चाहिए कि यदि यह बात न समझाई हो तो वे इसे बालकको समझा दें।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।( २,२१)
जो मनुष्य इस भाँति आत्माको अविनाशी जानता है, नित्य जानता है, अज जानता है और अव्यय जानता है वह किसीको किस तरह मार सकता है या मरवा सकता है?
वरन् हर घड़ी मनमें रखनेके लिए गई बल्कि चारों वर्णोंके लिए-लिए-लिखी गई है। शूद्र, भंगी, 'गीताजी' सूत्र रूपमें नहीं लिखी गई है, लिखी गई है। वह ज्ञानियोंके लिए नहीं लिखी कहना चाहिए कि अठारह जातियोंके पठन-पाठनके स्त्री आदि सभी वर्गोंके लोगोंके लिए लिखी गई है। इसीलिए एक ही अर्थ रखने-वाले एक ही वस्तुका वर्णन करते हुए नाना प्रकारके विशेषणोंका प्रयोग किया गया है। उद्देश्य यही है कि कहीं जानने योग्य बात रह न जाये। यह वैसा ही हुआ, जैसे माँ अपने बालकको एक ही बात बार-बार बताती-समझाती रहती है।
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रविवार, १४ मार्च, १९२६
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। (२,२२)
यदि मेरा मन इस जर्जर शरीरको छोड़ दूसरा शरीर लेनेको करे तो क्या मैं शरीर न बदलूँ। आँखसे दिखाई न दे, कानसे सुनाई न पड़े, जीभका स्वाद चला जाये तो आदमी खाटपर पड़े रहना पसन्द करेगा अथवा शरीर छोड़ना?
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥ (२,२३)
शस्त्र इसे काट नहीं सकता। यदि कोई हवामें हथियार चलाये तो क्या हवाका कुछ बिगड़ता है। यह तो हवासे भी सूक्ष्म है। अग्नि इसे नहीं जलाता, पानी इसे
- ↑ जहाँ अर्थ स्पष्ट है वहाँ कई बार साधन-सूत्रमें श्लोकोंके शब्दार्थ नहीं दिये हैं ।