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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

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बुधवार, १७ मार्च, १९२६

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्यव तत्र का परिदेवना। (२,२८)

देह-मात्र जन्म लेनेसे पहले अव्यक्त रहता। और मृत्युके बाद भी वह अव्यक्त हो जाता है। जन्म और मरण ईश्वरके हाथकी बातें हैं। इसलिए इनका रहस्य ईश्वर ही जानता है। डाक्टर भी इस विषयमें हार मान बैठे हैं; क्योंकि वे शरीर उत्पन्न नहीं कर सकते। 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया और सचमुच कहाँ जाऊँगा। देह धारणके बाद आत्मा आकार लेता है। इस मध्यम स्थितिको ही हम देख पाते हैं। विचार करनेवालोंने कहा है कि पट्टीपर गोल आकृति बनाने और मिटाने में जितना समय लगता है, उसके असंख्यवें भाग जितना समय भी ईश्वरको जीवन और मरण प्रदान करते हुए नहीं लगता। कोई भी गणितज्ञ समयके इस भागको नहीं आँक सकता।

'तत्र का परिदेवना 'तब फिर इसमें दुख किस बातका? यह ईश्वरका एक जबर्दस्त रहस्य है। जैसे जादूगर पलक मारते ही आमका वृक्ष पैदा करता है और उसे फिर गायब कर देता है, ऐसे ही ईश्वर भी जादूके अनेक खेल करता है। हम उनका आदि और अन्त नहीं जान पाते। तब उसके लिए शोक किसलिए किया जाये?

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥(२,२९)

कितने ही ज्ञानी इसे आश्चर्यवत् देखते हैं, कितने ही इसे आश्चर्यवत् कहते हैं, सुनते हुए भी कितने ही इसे समझ नहीं पाते, ऐसी करुणाजनक स्थिति है हमारी। ईश्वरके गुणोंका बखान करते हुए उनका पार नहीं पाया जा सकता — ऐसी ही उसकी लीला है।

अन्तमें सारांश दे दिया है:

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि। (२,३०)

हे अर्जुन, यह आत्मा सभीके शरीरमें सर्वदा अवध्य है। शरीरका नाश तो काँचके तड़क जाने जैसा है। यह चक्र तो चलता ही रहता है।

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गुरुवार, १८ मार्च, १९२६

आज जो चोरी हुई है ' उसे 'भगवद्गीता' का एक पदार्थपाठ समझना चाहिए। जहाँ ममत्व है वहाँ हिंसा है। वस्तुको अपनी कहकर संगृहीत रखना पड़ता है। यदि

१. आश्रममें चोरी हुई थी, यहाँ उसीका उल्लेख है । Gandhi Heritage Portal