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'गीता-शिक्षण'

उसे दूसरेको दे दिया जाये तो ममत्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि हमने उसे अपना मानना समाप्त कर दिया। संसारकी हरएक वस्तु हमारी है, फिर भी उसके विषयमें तटस्थ रहना चाहिए। उसकी ओरसे निश्चिन्त होकर सोना चाहिए। इस तरह आश्रममें जो-जो वस्तुएँ हैं वे जिस प्रकार हमारी हैं, उस प्रकार दूसरोंकी भी हैं। ऐसा मानकर हमें तटस्थ भावसे बैठ रहना चाहिए। दूसरा मार्ग मार-धाड़का अथवा राक्षसी है। हमने उसका अनुसरण नहीं किया। किन्तु आज हमारा एक मिला-जुला मार्ग है। हम सामुदायिक परिग्रहको स्वीकार कर चुके हैं। व्यक्तिगत परिग्रह जितना कम हो, उतना अच्छा। ममत्वकी इस भावनाको भूल जानेकी बात कृष्णने अर्जुनसे कही और अर्जुन-कृष्णके निमित्तसे व्यासने इसे हमें बताया।

ज्ञानकी बात कह चुकनेके बाद अब श्रीकृष्ण एक लौकिक बात कहते हैं। वे अर्जुनको बताते हैं कि उसका व्यवहार-धर्म क्या है।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेषोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥(२,३१)

धर्म-युद्ध करनेसे बढ़कर क्षत्रियका दूसरा कोई कर्त्तव्य नहीं है। इसे धर्म-युद्ध किस लिए कहा गया है। क्योंकि अर्जुन स्वयं इस युद्धको प्रारम्भ करने नहीं गया था। वह तो अपने घरमें आरामसे बैठा था। दुर्योधनने वहीं जाकर उसे छेड़ा है। उसके बिना कुछ किये ही यह युद्ध उसके सिरपर आ पड़ा। इससे मानो स्वर्गका द्वार ही खुल गया। इसके आगे कीत्तिका उल्लेख किया गया है:[१]

अकीति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥ (२,३४)

पाखाने साफ करना जिन्होंने स्वधर्मकी तरह स्वीकार किया है, यदि वे ऊबकर कहें कि यह तो भंगीका काम है, तो कृष्ण उनसे कहेंगे कि तुम अपने धर्मसे च्युत हो रहे हो और इस कारण लोग तुम्हें नाम रखेंगे। रात-दिन लोकमें तुम्हारी निन्दा होगी। इज्जतदार आदमीके लिए अर्कोति मरणसे भी अधिक भोंडी है। कृष्ण कहते हैं — तू भयके कारण भाग गया है, महारथियोंको ऐसा कहनेका कारण मिल जायेगा।[२] अन्तमें निम्नलिखित श्लोकसे तर्कको परिपूर्ण बनाते हैं:

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।। (२,३८)

इस श्लोक में जो बात कही गई है, वह लौकिक नहीं बल्कि आत्मिक है।

  1. इसके पहले निम्नलिखित दो श्लोक अध्याहार में समझिए। यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
    सुखिन: क्षत्रियाः पार्थं लभन्ते युद्धमीदृशम्॥
    अथ चेत्वमिमम् धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि
    ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ (२, ३२-३३)
  2. दूसरे अध्यायके श्लोक संख्या ३५-३७ का अभिप्राय भी इन्हीं पंक्तियोंमें आ जाता है।