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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुए उन्हें समझदार बनाऊँ। इससे अधिक मेरा कोई उद्देश्य नहीं है। हम रोज कहते हैं:

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।[१]

यदि इस नित्य पाठके बावजूद हम असत्को ही सत् मानते रहें और वैसा ही बरताव करते रहें तो शब्दोंकी यह आवृत्ति किस कामकी?

हमें तो प्रतिक्षण यही निर्णय लेते रहना है कि हमारे अमुक कार्यमें से आत्मा सिद्ध होती है या देह। हम देहका पिंजरा तो तोड़कर फेंक नहीं सकते, इसलिए हमें एकसाथ विद्या और अविद्याको जानना है।"[२]

अब, जो व्यक्ति ज्ञानको व्यवहारमें उतारता है वह किस तरह त्राण पा जाता है, इस विषय में कहते हैं:

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतोभयात्॥(२,४०)

कर्ममार्ग में प्रयोग करनेवालेको दोष नहीं व्यापता। आरम्भका नाश नहीं है। इस धर्मका स्वल्प पालन भी महान भयसे रक्षा कर लेता है। यह राजमार्ग है, सहज मार्ग है, राजयोग है। इस मार्ग में किसीके ठोकर खानेकी बात तो रहती ही नहीं। आरम्भ कर देनेके बाद कोई अड़चन ही नहीं है। मैंने कल ही एक भाईको लिखा कि तुम्हें भगन्दर नहीं है, कोई दूसरी बीमारी है। इनसे मैंने कहा कि भाई, रामनाम ही लेते रहो। इस आरम्भका नाश तो है ही नहीं। यदि मैं उनसे यज्ञ करवानेकी बात कहूँ तो उससे क्या होगा। सच्चा यज्ञ करनेवाला नहीं मिलेगा। और भी अड़चनें आयेंगी। न मैं यह कह सकता हूँ कि जगन्नाथपुरी चले जाओ और अमुक देवताको अमुक भेंट चढ़ाओ। यदि मेरे बताये उपायका अनुगमन करते हुए वह नास्तिक हो जाये तो? और यदि उसे यह रामबाण लग जाये तो वह महान भयसे छुटकारा पा जाये। इस व्यक्तिका रोग मानसिक है। इसके मनकी आसक्ति निकल जानी चाहिए। वह केवल रामनामका ही स्मरण करे। डाक्टर भी यही कहते हैं कि हम अपने रोगके बारेमें चिन्ता न किया करें।

यह एक मह्त्त्वपूर्ण श्लोक है। इसमें यह अद्भुत तत्त्व भरा हुआ है कि आरम्भ- का नाश नहीं होता। उसमें दोष नहीं है, रक्षण है। यह राजमार्ग है, समकोण है, सत्य है। सभी समकोण ९० अंशके होते हैं। यह मार्ग सत्यका है। इसका अनुसरण करनेमें किसी प्रकारकी हानि नहीं है, कोई नाश नहीं है। किन्तु गायकी रक्षा करनेके लिए असत्य भाषण किया जा सकता है या नहीं, प्राणरक्षाके लिए गोमांस खाया जा सकता है या नहीं, इस तरहकी दलील करनेवालेके लिए तो कोई रोक ही नहीं है।

  1. श्रीमदभगवद्गीता(२, १६)।
  2. देखिए ईशोपनिषद्।