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'गीता-शिक्षण'

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रविवार, २१ मार्च, १९२६

आत्माकी देहसे भिन्नता सिद्ध करनेके लिए तीन बातें, तीन कसौटियाँ रखीं। 'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति' में निहित तत्त्वका हम प्रतिक्षण प्रयोग करके देख सकते हैं। किन्तु वह कौन-सी चीज है जिसे हम इसी क्षण कर सकते हैं और जिसके आरम्भका नाश नहीं होगा । हम ऐसी कोई वस्तुके विषयमें सोचें तो उत्तर यही मिलेगा कि तत्काल तो 'भगवद्भजन' का विचार ही किया जाना चाहिए और सो भी सावधान चित्तसे।

रामस्वामी अय्यरने असहयोग आन्दोलनके शुरू में बम्बई में [ खादीके विषयमें ] भाषण दिया था। और तब खाडिलकरने[१] कहा कि राजकीय प्रवृत्तियों में यही एक ऐसी प्रवृत्ति है जो तीनों शर्तोंको पूरा करती है। इसका फल तत्काल प्राप्त होता है। इसमें प्रत्यवाय नहीं है और यह साठ करोड़ रुपये खोनेके महान भयसे मुक्ति देती है।

यही बात समझानेके लिए आगेका श्लोक कहा गया है:

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। (२,४१)

हे अर्जुन, व्यवसायात्मिका (निश्चयात्मक) बुद्धि तो एक ही है। मैं जो मार्ग तुझे बता रहा हूँ, उसपर बुद्धिको इतना अधिक दृढ़ रखना चाहिए कि वह इधरसे उधर न हो। अव्यवसायीकी, जो एकनिष्ठ नहीं है उसकी प्रवृत्तियोंकी अनन्त शाखाएँ होती हैं। बन्दरकी तरह मन एक डालसे दूसरी डालपर छलाँगें लगाता रहता है। ऐसी है यह बुद्धि। जैसे जीनेकी इच्छा रखनेवाला व्यक्ति वैद्य, संत-महात्मा, ओझा, जो मिले उसीकी मददके लिए आतुर हो जाता है, उसी प्रकार बन्दर एक डालीसे दूसरी डालीपर कूदता फिरता है और अन्तमें उसे असमय गोफनसे निकले हुए पत्थरका शिकार बनना पड़ता है। अव्यवसायात्मिका बुद्धिवाले मनुष्यका मन दिनोंदिन कमजोर होता चला जाता है और इतना अधिक अव्यवस्थित हो जाता है कि फिर उसे अपने मनमें बैठी हुई वासनाके सिवाय कोई दूसरी बात सूझती ही नहीं है। आजकी राजनीति में गुण एक भी नहीं है, दोष अपार हैं। क्योंकि उसमें खुशामद ही खुशामद है और भयसे त्राण देनेकी शक्ति नहीं है; उलटे वह खतरेमें डालनेवाली है। इससे आत्माका दर्शन करनेमें मदद नहीं मिलती। इसके फेरमें तो हम आत्मा खो बैठते हैं। इसमें पड़कर धर्म डूब गया, कर्म भी डूब गया। यह लोक और परलोक दोनों बिगड़ गये। किन्तु यदि चरखेकी प्रवृत्ति में विश्वास उत्पन्न हो जाये तो उससे हम लोगोंको लाभ पहुँचा सकते हैं, स्वयंको सन्तोष मिल सकता है और हम महाभयसे अर्थात् जो लोग हमें दबाये हुए हैं, उनसे निर्भय होकर रह सकते हैं। साथ ही परलोक सुधारनेका साधन

  1. आशय कदाचित् महाराष्ट्र के प्रसिद्ध उपन्यासकार, पत्रकार और सार्वजनिक कार्यकर्ता कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकरसे है।