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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

फिर भी अन्तमें तो इच्छा मात्रको छोड़नेकी बात उपस्थित होती है। ईश्वर-दर्शनकी इच्छा भी। क्योंकि ऐसे व्यक्तिके लिए सभी कुछ स्वाभाविक हो जाता है। साक्षात्कार हो जानेके बाद ईश्वर दर्शनकी इच्छा किसको रहेगी? नदीमें कूद पड़नेके बाद नदीमें कूदनेकी इच्छा नहीं रहती। जब हम ईश्वरमें तल्लीन हो जाते हैं, उसमें ओतप्रोत हो जाते हैं, तब उसके दर्शनकी इच्छा नहीं रहती।

नदीमें चौबीसों घंटे पड़े रहें तो बीमार हो जायेंगे। दिन-रात सोते रहें तो बीमार हो जायें और खाते ही रहें तो भी बीमार हो जायें। जिसकी हमेशा ही इच्छा करते रह सकें, ऐसी एक भी बात नहीं है। सुख-दुःखका प्रश्न इसीसे उत्पन्न होता है। जगत् में इच्छा एक ऐसी वस्तु है, जिसे जितना ज्यादा बढ़ाओ, वह उतनी अधिक बढ़ती जाती है। उसे जितना तृप्त करते जाओ, वह उतनी ही प्रबल होती जाती है। ऐसी ही 'गीताजी' की कथा भी है। यद्यपि में इसमें कोई बड़ा रस पैदा नहीं कर पाता, किन्तु यदि 'गीता' को सुननेकी सच्ची इच्छा हो तो वह बढ़ती ही जायेगी। यह इच्छा बढ़ती रहे तो इसका इच्छुक बीमार ही नहीं पड़ता, अथवा कह सकते हैं कि जो इच्छा हम सदा करते रहते हैं, प्रयासपूर्वक उसकी इच्छा नहीं करनी पड़ती। सूरज उदित और अस्त होता रहता है। उसके विषय में हम चिन्ता नहीं करते। जिसे अपनी इच्छाओंका शमन करना हो, उसके सारे काम स्वाभाविक ही होने चाहिए। चलना-फिरना, उठना-बैठना जितना स्वाभाविक है, उतने ही स्वाभाविक।

जगत् में अच्छी वासना केवल एक है। इसको पूर्ण करनेके लिए जो-जो साधन आवश्यक हैं, उनकी इच्छा भी अच्छी इच्छा कहलायेगी।

जो इस तरह कामना छोड़ सकता हो, वह कौन है? जिसका आत्मा अपने- आपमें सन्तुष्ट हो, वही स्थितप्रज्ञ है।

कोई ईश्वरकी कथा सुना रहा हो तो हमें सब कुछ भूलकर वहाँ दौड़ जाना चाहिए। 'रामायण', 'गीता' आदिका पाठ हो रहा हो तो हम उसमें लीन हो जायें। ऐसा व्यक्ति चार बजे सवेरे उठनेमें भी परेशानी नहीं मानेगा।

जो अपने विषयमें आत्मसन्तुष्ट होता है, उसके विषयमें नरसी मेहताने यह पंक्ति कही है: "ब्रह्म लटका करे ब्रह्म पासे" — ब्रह्मके सामने ब्रह्म नाचता रहता है। कविने इस पंक्ति में वही कहा है, जो 'गीता' कहती है। ब्रह्म अपना पूरा आनन्द ब्रह्मके माध्यम, ब्रह्मकी संगतिमें ही प्राप्त करता है। गुलाम मालिकके बिना अपनी हस्तीकी कल्पना ही नहीं कर सकता। जो चौबीसों घंटे किसीका नाम रटता है, वह तन्मय हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा परमात्मा बन जाती है। आत्मा परमात्माकी किरण भले हो, किन्तु यह किरण भी सूर्य ही है। ईश्वरको छोड़कर हमारी हस्ती ही नहीं है। जो व्यक्ति ईश्वरकी दासता स्वीकार करता है, वह ईश्वरमय हो जाता है।

यह स्थिति उस व्यक्तिकी-सी स्थिति नहीं है जो अपने विषयमें सन्तुष्ट तो है, किन्तु जिसे सन्तुष्ट रहनेके लिए अनेक उपाधियोंका संग्रह करना होता है। हमें अपने-आपमें से सन्तोष प्राप्त करना चाहिए। साधन और साध्य दोनों एकरूप हो जाने चाहिए। किन्तु आत्मामें से आत्माका आनन्द कौन प्राप्त कर सकता है? कर्मोको