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'गीता-शिक्षण'

भिन्न मनःस्थिति रखकर करें तो यह बात सम्भव हो जाती है। जो व्यक्ति अफीम खाकर सोयेगा उसकी नींद, अच्छी नींद नहीं होगी किन्तु जो निर्दोष ढंगसे सोता है, उसकी निद्रामें शान्ति होगी और उसका मन ईश्वरमें ओतप्रोत रहेगा।

इसके बाद जो श्लोक दिया गया है वह इसी श्लोककी टीका है।

जो मनुष्य स्वाश्रयी बनता है, ऐसा नहीं है कि वह दूसरेकी मदद नहीं लेता; बल्कि उसे दूसरेकी मदद लेनेकी जरूरत ही नहीं होती।

श्रद्धा हो तो बालक, स्थितप्रज्ञ बन सकते हैं। उनकी चिन्ता करनेवाले शिक्षक और माता-पिता होते हैं, इसलिए उन्हें कोई चिन्ता ही नहीं करनी पड़ती। वे अपने पिताके संरक्षण में आचरण करते हैं। वे ब्रह्मचारी, मुनि और स्थितप्रज्ञ हैं। इस अर्थ में कि उनसे जितना कहा जाता है, वे उस सबको करते हैं, उस सबका पालन करते हैं। ऐसे सब बालक प्रह्लाद-जैसे बन सकते हैं।

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बुधवार, ३१ मार्च, १९२६

'प्रजहाति' वाले श्लोकका यह अर्थ तो हो ही नहीं सकता कि हम जैसे हैं वैसे ही बने रहें। यदि यह अर्थ होता तो दूसरी पंक्ति लिखी हो न जाती। जो व्यक्ति आत्मामें से ही सन्तोष प्राप्त करता है वह सभी कामनाओंका त्याग कर देता है। किन्तु आत्मामें से आत्मसन्तोष तभी प्राप्त हो सकता है जब अच्छे बननेकी इच्छा, उन्नतिकी इच्छा जाग्रत हो। जो व्यक्ति आत्माके आधारपर ही आत्मसन्तुष्ट होना चाहता है उसे तो इसमें बाधक होनेवाली सभी बातें छोड़ देनी चाहिए। यदि केवल शेखचिल्लीकी तरह कल्पना ही करनी हो तो फिर क्या अच्छा है, क्या बुरा है, यह सोचनेसे लाभ ही क्या? नरक अच्छे इरादोंका भण्डार है। इसीलिए कहा गया है कि एक खण्डी विचार नदीमें डाल दो, और आधा तोला आचरण करो।

(जो लड़का डटकर खाता है, वह ब्रह्मचर्यका पालन कर ही नहीं सकता, ऐसा मैंने एक अंग्रेजी पुस्तकमें पढ़ा था। पेटके चारों कोने भोजनसे नहीं भर देने चाहिए।)

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।(२,५६)

दुःखमें अपने मनको उद्विग्न न करनेवाला, दुःखसे दुःखी न होनेवाला, (दुःख किसी कारणका परिणाम होता है, इसे ज्ञानपूर्वक समझकर आपत्ति आनेपर दुःखी न होनेवाला) और भाँति-भाँतिके सुखोंके सामने होनेपर भी उनके प्रति आकर्षित न होनेवाला, जिसकी आसक्ति, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं ऐसे व्यक्तिको स्थितधी, अर्थात् जिसकी बुद्धि अचल रहती है और भँवरमें नहीं पड़ती, कहेंगे।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।(२,५७)

जो व्यक्ति सभी वस्तुओंपर से अपनी प्रीति और इच्छाओंको उठा लेता है; शुभ अथवा अशुभ वस्तु पाकर जो व्यक्ति तटस्थ रहता है, उदासीन रहता है, न प्रसन्न