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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रहता है, न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है; अर्थात् जहाँ होनी चाहिए, वहाँ है, ठिकानेपर है। इसके लिए दृष्टान्त देते हैं:

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।(२,५८)

जिस प्रकार कछुआ अपने सारे अंगोंको सब ओरसे समेट कर अपने कवचके भीतर कर लेता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियोंको उनके विषयोंमें से खींच लेता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है। वही व्यक्ति ईश्वरमें लीन माना जा सकता है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियोंको स्वेच्छासे समेट लेता है। जब हमारी इन्द्रियाँ चल-विचल हों, तब हमें सदा कछुओके दृष्टान्तपर विचार करना चाहिए। इन्द्रियोंके विषय मानो कंकड़ हैं। यदि हम उन्हें अपने वशमें रखें तो हमें कंकड़ोंकी चोट नहीं लगेगी अर्थात् हमें अपने हाथ-पाँव, आँख इत्यादि वशमें रखने चाहिए।

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गुरुवार, १ अप्रैल, १९२६

अब बताते हैं कि इन्द्रियोंके विषयोंको किस तरह रोका जाये।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥(२,५९)

जो आदमी अपनी देहको निराहार रखता है, विषय उसी आदमीके शान्त हो पाते हैं। जो आदमी डटकर खानेवाला होता है, उसकी सभी इन्द्रियाँ जागरूक रहती हैं किन्तु यदि वह खाना बन्द कर दे तो उनकी सारी शक्ति समाप्त हो जाये। अपनी इन्द्रियाँ जिसके वशमें न रहती हों, उपवास करना उसके लिए इष्ट है, ऐसा शास्त्र कहता है। रमज़ान, अधिक मास इत्यादिमें निराहार रहनेके लिए कहा गया है; इस सबका उद्देश्य इन्द्रिय-दमन है। यदि मैंने यह सोचा हो कि आज अहमदाबाद जाकर नाटक देखूंगा, किन्तु उस दिन मैंने उपवास किया हो तो जानेका मन नहीं होगा। यदि विषयोंका शमन न हो तो लंघनकी अवधि बढ़ा देनी चाहिए। फिर भी शमन न हो तो एकदम निराहार रह जाना चाहिए। श्लोकके पहले भागका यह अर्थ हुआ।

अब दूसरा भाग:

विषय शान्त हो जाते हैं किन्तु रसका शमन नहीं होता, रस कायम ही रहता है। उपवास करनेवाले व्यक्तिको जबतक ऐसा लगता है कि मैं सुरक्षित हूँ तबतक उसे उपवास नहीं सालता, किन्तु सामान्य रूपसे रस बचा रह जाता है। उपवास करते हुए तो विकार शान्त हो जाता है, किन्तु व्यक्ति, जल्दी ही उपवास समाप्त हो जाए, ऐसी इच्छा करता रहता है। जबतक रस नहीं चला जाता, उपवास नहीं टिकता। वैराग्यके बिना त्याग नहीं टिकता। अवसर आनेपर विषय सिर उठाये बिना नहीं रहते। इसका यह अर्थ नहीं है कि त्याग निश्चित अवधिके लिए करना ही नहीं चाहिए। जिन चीजोंको छोड़ना जरूरी है, उन्हें छोड़ना अवश्य चाहिए।