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'गीता-शिक्षण'

श्लोकके पहले भागमें यह कहा गया है कि विकार निराहारके द्वारा रोकना चाहिए। किन्तु केवल निराहारी होनेसे ही पूरा फल नहीं मिलता। इसके लिए कुछ अधिक करना चाहिए। ईश्वरका दर्शन हो जाये तो रस भी शान्त हो जाता है। यह आखिरी बात एक पहेली-जैसी है। जबतक आदमीके विषयोंका नाश नहीं होता तबतक वह समाधिस्थ नहीं हो पाता; और जबतक व्यक्ति समाधिस्थ नहीं होता तबतक वह विषयोंका त्याग नहीं कर पाता।

इस पहेलीको किस तरह हल करें? धीमे-धीमे प्रयत्न करें। धीरे-धीरे और नित्य गहरे-गहरे ईश्वरकी झाँकी देखें। खानेका विचार ही छोड़ दें और मनमें ऐसा निश्चय करें कि विषयोंके दास बननेकी अपेक्षा अच्छा है कि मेरे देहका नाश हो जाये। किन्तु अपने गलेपर छुरी फेर लेनेसे तो दमन नहीं होता। दमन तो इच्छाओंका ही किया जाना चाहिए। जो व्यक्ति शरीरको निभानेकी दृष्टिसे खाता है, उसे खानेका अधिकार है; किन्तु खानेसे जिस व्यक्तिके विषय जाग्रत हो जाते हों, उसे आहार छोड़ देना चाहिए। आहार छोड़नेके बाद यदि वह धीरज रख सके, तो उसके विषय भी एकदम शान्त हो जायेंगे। यदि विषयोंके एकदम शान्त हो जानेके बाद देहको टिकाये रखनेकी दृष्टिसे पानी अथवा दूध लेनेका मन हो तो ले लें। बुद्ध भगवानके विषयमें कहा जाता है कि वे अपने उपवासके कारण मूच्छित होकर गिर पड़े थे। एक बहन[१] आई और उसने उनके होठोंपर दूध डाल दिया। क्या इस दुधसे उनके विकार जाग्रत हो गये? नहीं; उलटा हुआ। इसके बाद उन्हें ईश्वरका दर्शन हुआ।

इस श्लोकका तात्पर्य यह है कि शुद्धिके लिए उपवास किया जाना चाहिए। किन्तु शास्त्र कहता है कि उपवास करनेके साथ-साथ विषय निवृत्तिको पूरी-पूरी भूख भी होनी चाहिए। यदि साथमें दर्शन करनेकी इच्छा होगी तो उपवास फल सकेगा, अन्यथा नहीं। विषयोंकी निवृत्तिकी इच्छा भी ईश्वर दर्शनके लिए की जाती है। उपवास करते हुए उसकी आतुरता यही होनी चाहिए कि मुझे तो ईश्वरके दर्शन करने हैं। विषय उसके आड़े आते हैं, इसलिए उन्हें समाप्त किये बिना चारा नहीं है। ईश्वर - दर्शन हो जानेके बाद खाना, न खाना एक-सा हो जाता है। विनोबाने चैतन्यके[२] विषयमें बताया कि शक्करकी डली उनकी जीभपर कंकड़ीकी तरह पड़ी रही, वह घुली ही नहीं। इसका यही कारण था कि रस मर चुका था। मैंने कहा है कि अन्तमें रस जीभ में नहीं मनमें होता है। जिस व्यक्तिका रस चला जाता है, वह समाधिस्थ हो जाता है; अथवा फिर उस व्यक्तिकी जीभपर भी कोई चीज नहीं घुलती, पीलिया जैसा रोग हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि त्यागी और रोगीकी स्थिति एक हो जाती है; एककी स्वेच्छासे, दूसरेकी जबरदस्ती।

चैतन्य देवको लगता था कि मैं ईश्वरकी कृपासे निभ रहा हूँ और मुझे जो- कुछ खाना है, वह ईश्वर दर्शनके लिए ही। ईश्वरके साक्षात्कारके लिए विषयोंको सम्पूर्ण रूपसे जीतना चाहिए, भोगोंके प्रति रस भी जाता रहना चाहिए। यह

  1. १. सुजाता।
  2. महाप्रभु चैतन्य।