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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

श्लोक इसी बातकी चाबी है। विषयोंपर काबू रखनेके लिए निराहार रहना, अर्थात् इन्द्रियोंका आहार बन्द कर देना। इन्द्रियाँ यदि अपना व्यापार छोड़ दें तो इसका अर्थ उनका निराहार होगा। इसके बाद दूसरा कदम होना चाहिए आत्मदर्शनमें मनको लगाना। इसके बाद रस एकदम शान्त हो जायेगा। जिसे यह स्थिति प्राप्त हो जायेगी, उसकी स्थिति जनककी भाँति बन सकेगी।

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शुक्रवार, २ अप्रैल, १९२६

कलका श्लोक ही ले रहे हैं। यह बहुत महत्त्वपूर्ण श्लोक है। कल सारे दिन मैं इसीपर विचार करता रहा। चार सौ पाँच सौ वर्ष पहले यूरोपमें और अरबिस्तान में इन्द्रिय-दमनको अत्यधिक महत्त्व दिया जाता था। पैगम्बरके समयमें नफस (इन्द्रियोंके समुदायके लिए यह शब्द बहुत अच्छा है। इसका एक अर्थ वासना भी है) का दमन करनेके लिए तीन वस्तुएँ आवश्यक मानी जाती थीं — बन्दगी, रोज़ा और जागरण। पैगम्बर साहब रातके दो-तीन बजेतक जागते रहते थे। खानेके विषयमें भी ऐसा ही था। पैगम्बर स्वयं ही रोज़ा रखते हों, ऐसा नहीं था। रोजे रखना तो सबके लिए आवश्यक माना जाता था। दुनियादारीमें फँसे हुए लोगोंको भी रोज़े तो रखने ही चाहिए। पैगम्बर तो प्रायः रोजा रखते ही थे। रोज़ा रखते हुए दिनको पानी पीने की भी मनाही होती है। किन्तु सूर्यास्त हो जानेपर नियम है कि [ कुछ खाकर ] पानी पीना चाहिए। पैगम्बर साहब अपने ऊपर इस नियमको लागू नहीं करते थे। इसलिए उनसे किन्हीं सज्जनने पूछा कि जब आप नहीं खाते, तो हमें भी नहीं खाना चाहिए। पैगम्बर साहबने कहा: "न; तुमको ख़ुदा खुराक कहाँ देता है? मुझे तो देता है।" यह सुनकर उक्त सज्जनने अपने मुँहपर तमाचा मार लिया और सोचा कि इन्हें खुदासे सन्देश मिलता है और वे हमें भी वही सन्देश दे देते हैं, किन्तु हम लोग तो उसके पालनका पाखण्ड-भर करते हैं। पैगम्बर साहबके लिए भूखा-प्यासा रहना सुखदायक था, क्योंकि वे तो हर समय ईश्वरके सान्निध्यमें थे। वे खुराकमें खजूर लेते थे। जहाँ मदिराका चलन होता है वहाँ घरों-घर अंगूरके मण्डप होते हैं। इसी प्रकार अरबमें घरों-घर खजूर लगे होते हैं। वे उन्हीं में से थोड़े खजूर तोड़ लेते थे। पैगम्बरके साथ रहनेवाले सेवकगण भी खजूर खाते थे। इनके लिए जो थोड़ा-बहुत आटा पीसा जाता था, वह भी मोटा होता था। जागते तो इतने अधिक थे कि बीबी साहिबाको चिन्ता हो जाती थी कि वे कब सोयेंगे। इस तरह नफसको दबानेके लिए और ईश्वरके दर्शन करनेके लिए जागरणके बाद वे उपवास भी करते थे। ऐसी ही स्थिति ईसामसीहकी भी थी। उन्होंने एकान्तवास किया, चालीस दिन उपवास किया और अतिशय देह-दमन किया। बादमें उन्हें लगा कि अब मैंने बी-आवाज सुन ली है, ईश्वरने मुझसे बातचीत की है और मेरे- उसके बीचका परदा खुल गया है। उनके अनुयायियोंने भी ऐसा ही किया। उपवास, इबादत (भक्ति, उपासना) की परम्परा यूरोपमें आजतक चल रही है।