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'गीता-शिक्षण'

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।(२, ६१)

जो सभी इन्द्रियोंको वशमें करके मत्परायण होकर स्थितधी बनकर बैठ जायेगा, तो इसके बाद उसकी इन्द्रियाँ उसके वशमें हो जायेंगी। वह व्यक्ति योगी है। इस तरह बता दिया कि स्थितप्रज्ञ किस तरह बना जा सकता है।

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शनिवार, ३ अप्रैल, १९२६

कल कहा कि रसको शान्त करनेके लिए निराहारता, भक्ति, प्रार्थना और जागरणकी आवश्यकता होती है। किन्तु जबतक साक्षात्कार नहीं होता तबतक रसका क्षय नहीं होता। प्रश्न यह है कि क्या इस देहके रहते हुए रसका सचमुच क्षय होता भी है। मुझे प्रतीति हुई है कि इस देहमें रहते हुए कोई भी व्यक्ति मुक्त हुआ नहीं कहला सकता, मोक्षके योग्य हुआ कहला सकता है। जनक-जैसोंको मुक्तात्मा कहते हैं। वहाँ 'मुक्त' को एक व्यावहारिक प्रयोग समझना चाहिए। उसका यह अर्थ हुआ कि ये महापुरुष मरनेके बाद मुक्त हो जायेंगे और फिर उन्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा। ऐसा कहना कि यह देहके रहते मुक्त हो गया है, मुक्त शब्दके अर्थको तोड़ने- मरोड़ने जैसा है, क्योंकि देहके साथ जबतक थोड़ा भी सम्बन्ध बना हुआ है; तबतक मुक्त होना शेष ही है। थोड़ा भी विचार करें तो मालूम हो जायेगा कि अहंभाव सर्वथा शून्य हो जाये तो देह चल ही नहीं सकता। देहको टिकानेकी इच्छा न हो, तो देहका नाश ही चाहिए। हाथको थोड़ा भी हिलाना चाहें तो मन भी थोड़ा हिलेगा। यदि देह में से मनको भस्मसात कर देना हो तो देहको ऐसा हो जाना चाहिए जैसे 'जला हुआ रेशमी धागा' आकृति-भर रह जाता है। जो व्यक्ति हिलता डुलता है, उसका [ अहंभाव ] थोड़ा-बहुत तो शेष बच ही गया है। वैज्ञानिक शीशीमें से हवा निकाल लेते हैं, फिर भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म हवा रह ही जाती है। हवा कमसे कमतर और पतली होती चली जाती है, केवल वैज्ञानिक ही जान पाता है कि अभी हवा बाकी है। इसी तरह जबतक देहके साथ चलने-फिरनेकी क्रियाका किंचित्मात्र सम्बन्ध भी बचा है, तबतक रसका सर्वथा क्षय नहीं होता। इसके सिवाय जबतक रंचमात्र भी हिंसा बची है, तबतक मोक्ष नहीं है; और देहकी छोटीसे-छोटी क्रियामें भी हिंसा तो होती ही है। देह एकदम निश्चेष्ट हो जाये, तब भी बहुत ही कम क्यों न हो, कुछन-कुछ हिंसा शेष रह जाती है। कल्पनामें भी हिंसा है। इसलिए तबतक सम्पूर्ण आत्मदर्शनकी स्थिति नहीं होती, यह स्थिति मनके लिए भी अगम्य है।

अर्थात् विषयका सर्वथा क्षय देहावसान के बाद ही होता है। ऐसा कहना एक भयंकर बात तो है, किन्तु 'गीताजी' भयंकर सत्यका प्रतिपादन करते हुए संकोच नहीं करतीं। सत्यको यदि कोई कहे नहीं, तो वह इसीसे छुपा नहीं रह सकता। मोक्ष सर्वोपरि वस्तु है। योगीगण भी इसका दर्शन ध्यानमें ही कर सकते हैं। इसलिए कहना चाहिए कि देहधारी जबतक देहके भीतर पड़ा हुआ है, तबतक उसकी मुक्ति