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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नहीं हुई है। कैदी कैदमें पड़ा हुआ है और बादशाह उससे कहता है कि तू अब छूटने-वाला है। पर जबतक वह छूटा नहीं है, तवतक तो कैदखाने में ही पड़ा हुआ है।

कैदसे छूटनेके बादका दृश्य तो उसके मनमें ही है। इसी तरह यदि इस आत्माको कोई चीज मिलनी है या कोई चीज उसे प्राप्त करनी है तो जबतक वह इस पिंजरे में पड़ी हुई है, तबतक नहीं।

और यह स्थिति बिलकुल ठीक है। निकलनेके बाद और निकलनेके पहलेकी स्थितिमें भेद क्योंकर नहीं होगा?

सत्य एक इतनी प्रौढ़ और महान वस्तु है कि जैसे-जैसे उसपर विचार करते हैं वैसे-वैसे यही प्रतीति होती है कि सत्यका अनुभव करना हो तो देहके विषय में अनुराग बिलकुल ही मिट जाना चाहिए। मोक्षके लिए मनमें आतुरता होनी चाहिए। मोक्षका मूल्य इस विचारके कारण दिनोंदिन बढ़ता चला जाना चाहिए। यदि यह बड़ीसे-बड़ी वस्तु है, तो फिर देहमें रहते हुए इसे अप्राप्य ही मानना चाहिए। जब- तक देहके फाटक खुल नहीं गये हैं, तबतक इसकी सुगन्ध नहीं आती। बात भयंकर लगे अथवा न लगे, सिद्धान्त यही है।

इस वस्तुके अधिक विचार अथवा ऊहापोहमें हमें नहीं पड़ना है। साध्यके विषय में सोच लेनेके बाद सोचना केवल साधनके विषय में ही चाहिए और यदि साधन; शुद्ध रहें, तो साध्यको तो मुट्ठीमें ही समझना चाहिए। यदि पिताके ऊपर विश्वास है तो हमारा प्राप्य हमें मिला हुआ ही है। वसीयत आदिके बारेमें पूछना जरूरी नहीं है। इसी तरह इस बातके विषयमें वादविवाद करना आवश्यक नहीं है। इसे तो यूक्लिडकी सरल रेखा जैसी वस्तु समझना चाहिए। समकोण भी अभीतक जगतमें कोई नहीं बना सका; किन्तु अपूर्ण समकोणसे मकान बँध जाते हैं। उसी तरह वास्त- विक मोक्ष कल्पनामें है। सरल रेखाको मिटा दो, तभी सरल रेखाकी कल्पना की जा सकती है। इसी प्रकार देह छूटनेके बाद ही मुक्तिको अवकाश है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धि नाशात्प्रणश्यति।।(२, ६२-६३)

विषयोंके बारेमें सोचते-सोचते विषयोंके प्रति मोह उत्पन्न हो जाता है। अब श्रीकृष्ण इन्द्रियोंके विषयोंसे छूटनेका क्रम बताते हैं। किसी वस्तुको प्राप्त करनेकी बात सोचनेका अर्थ है उसे प्राप्त करनेकी प्रबल आसक्ति—संग, आसक्तिसे काम उत्पन्न होता है और पारा चढ़ जाता है। आसक्ति उत्पन्न होनेके बाद आदमी उसके लिए आतुर हो जाता है और काममें से क्रोध उत्पन्न होने लगता है। जिसे पानेका निश्चय किया था, उसे न पाकर क्रोध उत्पन्न होता है। जैसे-जैसे हमारी कामनाका विषय दूर होता जाता है, वैसे-वैसे सम्बन्धित व्यक्तिपर क्रोध बढ़ता जाता है। क्रोध मोहमें प्रतिफलित होता है और उससे आदमी अपना भान खो बैठता है। उसके बाद स्मृतिभ्रंशकी स्थिति आ जाती है। 'मैं कौन हूँ, कहाँसे आया' आदि बातें विस्मरण