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‘गीता-शिक्षण’

हो जाती हैं। याद रहें तो व्यक्ति अपनी मर्यादा समझता रहे न? और जिसकी स्मृति चली गई, उस व्यक्तिकी बुद्धिका नाश हो जाता है। ऐसा व्यक्ति मानो मर ही गया। कुछ लोग कभी-कभी हँसते-हँसते फाँसीपर चढ़ जाते हैं। किन्तु इस तरह तो उनका यह लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। इस तरह विषयका ध्यान करने में व्यक्तिका नाश हो जाता है। यह आत्महत्या करनेके बराबर है। इससे केवल शरीरका नाश ही नहीं होता, अनेक जन्मोंतक उसका उद्धार भी नहीं होता। इसलिए विषय जागा नहीं कि उसे तुरन्त ही नष्ट कर देना चाहिए। सबसे पहली बात है, विषय के विचारसे मुक्त होनेकी। विचारसे मुक्त होना हो तो ईश्वरमें मन लगाना चाहिए और समाधिस्थ हो जाना चाहिए।

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रविवार, ४ अप्रैल, १९२६

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यविधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ (२,६४)

किसी भी वस्तुके प्रति प्रीति होती है और द्वेष होता है। जो इन्द्रियाँ इस स्थितिसे छूट गई हैं और जो इन्द्रियाँ हमारे वशमें हैं, यदि हम उन इन्द्रियोंका उपयोग करते हैं तो ईश्वर-कृपाके अधिकारी बनते हैं। जिसके कान, नाक, आँख अपना-अपना स्वाभाविक काम करते रहते हैं और जिसमें विचारपूर्वक कुछ भी नहीं करना पड़ता — पलकें विचारपूर्वक उठाई-गिराई नहीं जातीं — यदि ऐसा करना पड़े, तो उसे रोग मानेंगे — उसकी राग-द्वेष रहित इन्द्रियाँ स्वाभाविक काम करती चली जाती हैं।

कानका स्वभाव क्या होना चाहिए? आत्मामें स्थित रहकर ही जब आत्मसन्तोष प्राप्त हो जाये, तो ऐसे व्यक्तिको समाधिस्थ कहेंगे। उसकी इन्द्रियाँ उसके वशमें होती हैं। जिसका मन एकाग्र हो गया है उस व्यक्तिका कान उसकी आत्माका गुलाम हो जाता है। आज तो हम इन्द्रियोंके गुलाम हैं। उस गुलामीसे निकलकर हमें आत्माका स्वराज्य प्राप्त करना है। तब फिर कान केवल आत्माका दिव्य गान सुनेगा। जोर-जोरसे नगाड़े बजते हों, तो उन्हें भी नहीं सुनेगा। जबतक आत्मा इस शरीरमें है, तबतक वह शरीरका स्वामी अथवा देवता होकर रहेगा, और इन्द्रियोंसे अनायास ही काम लेगा। उसे पण्डितजीका गायन सुननेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। वह तो केवल ईश्वरकी स्तुति सुनेगा।

जिस तरह संजयको दिव्य दृष्टि दी गई थी, उसी तरह हमारे कान और आँखके पीछे दिव्य कान और आँखें हैं। जो व्यक्ति आत्मवशी है, उसे भीतरकी इन्द्रियाँ मिल जाती हैं तो बाहरकी इन्द्रियोंकी जरूरत नहीं रहती। बाहरकी इन्द्रियोंमें तो कुछ-न-कुछ रागद्वेष रह ही जाता है। कोई हमारे हाथ काटे तो भी वे अपने-आप न हिलें, ऐसी स्थिति हो जानी चाहिए। इंग्लैंडमें एक बड़ा पादरी[१] हो गया है।

  1. अभिप्राय कदाचित् ह्यु लेटिमरसे है। इस प्रोटेस्टेंट सुधारकको क्वीन मेरीने सन् १५५५ में जलवा डाला था। अभिप्राय केन्टरबरीके आर्कबिशप टॉमस कैमरसे भी हो सकता है। इन्हें भी क्वीन मेरीकी आज्ञासे जला दिया गया था।