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'गीता-शिक्षण'

अच्छा [ या बुरा ] नहीं कहा जा सकता। चाहे जितना अच्छा व्यक्ति क्यों न हो, अन्त-कालमें वह मूढ़ बनकर लड़के-बच्चों और दुनियादारीके विचारमें पड़ जाता है। मोक्ष उसे ही मिला कहा जा सकता है जो अन्तकालमें ब्राह्मीस्थितिमें रहा हो। बौद्ध-निर्वाण में शून्यताकी बात है किन्तु इस निर्वाणमें शान्तिकी बात है। इसलिए इसे ब्रह्मनिर्वाण कहा है। वैसे हमें इस पंचायत में पड़नेकी जरूरत नहीं है। ऐसा माननेका कारण नहीं है कि बुद्धदेवने जिस निर्वाणकी बात की थी, उसमें और इसमें भेद है। बुद्धके निर्वाणकी व्याख्या और यह निर्वाणकी दूसरी व्याख्या समान ही हैं। बहुत-से विद्वान् यह बता गये हैं कि बुद्धने निरीश्वरवादकी शिक्षा नहीं दी, किन्तु यह सब मिथ्या विवाद है। जिसे देखनेके बाद भी कोई वर्णित नहीं कर सकता, ऐसे अलौकिक स्वरूपवालेके विषयमें हम क्या कह सकते हैं। यदि यह मान लिया जाता है कि हमारी देह मिथ्या है, तो फिर ये सारे वाद निरर्थक हैं।

इस तरह दूसरा अध्याय पूरा हो जाता है। स्थितप्रज्ञका अर्थ हुआ, जिसके रागद्वेष निर्मूल हो गये हैं, वह।

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गुरुवार, ८ अप्रैल, १९२६

अध्याय ३

कल जो अध्याय पूरा हुआ उसे सांख्ययोग नाम दिया गया है। हमने देखा कि पहले भगवानने देह और आत्माका पृथक्करण किया और फिर कहा कि मैंने सांख्यके विषय में बताया है अर्थात् तार्किककी तरह देह और आत्माका पृथक्करण किया। इससे अर्जुनको इस बातका अनुभव हो गया हो, सो बात नहीं है। वह उसे बुद्धिसे समझ गया। अर्जुनको युद्ध करनेका कर्त्तव्य समझाया गया, किन्तु यह सब उसी हदतक हुआ, जिस हदतक बुद्धिसे हो सकता था। तब फिर योग अर्थात् समबुद्धिसे काम करनेकी रीति बताई गई। इस तरह स्थितप्रज्ञका प्रसंग उठा।

अन्तिम श्लोकसे ऐसा जान पड़ता है कि अब भगवानको और कुछ कहना नहीं था। अर्जुनने दूसरा सवाल न किया होता तो सचमुच ही भगवानका अपनी तरफसे और कुछ कहना आवश्यक नहीं था। ब्राह्मीस्थितिमें भक्तिका भी समावेश हो जाता है किन्तु देहीका स्वभाव बुद्धिको वासनाके अनुकूल चलाना है, इसलिए अधिक स्पष्ट करने के लिए सत्यको बारम्बार बीच-बीचमें कहते रहना आवश्यक हो जाता है। यदि देही स्वयं निर्णय करने बैठ जाये तो सामान्य रीतिसे उसका निर्णय संसारके पक्षमें जायेगा। उसे यह बात रटते रहना पड़ती है कि "में आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ" और यह इसलिए कि यह उसके आठों पहरकी प्रतीति नहीं है। जिस बालकको मनमें संशय है ही नहीं, उसके लिए यह कहना आवश्यक नहीं होता कि माँ, मैं तेरा बेटा हूँ। जिसे अनुभूति नहीं हुई है, राम-नाम और द्वादश-मन्त्र उसीके लिए हैं। देह छूटने के बाद सुननेवाला और सुनानेवाला दोनों ही एक हो जायेंगे। जबतक देह है तबतक सारे साधनोंकी झंझट लगी रहती है। इसीलिए व्यासजीको 'गीता' लिखनी

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