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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पड़ी। 'गीता' में एक भी ऐसी बात नहीं आती जो हमारे संध्याकालकी प्रार्थना [ में सम्मिलित ' गीताजी' के ] श्लोकोंमें न आ जाती हो। व्यासजीने 'गीताजी' के बहाने पाठकको एक अलौकिक वस्तु प्रदान की है। सांख्य हो चाहे योग हो, संन्यास हो, चाहे गृहस्थाश्रम हो, सभी एक हैं। वे कहना यह चाहते हैं कि कर्म और अकर्म एक ही हैं। सब इतना मिला-जुला है कि जानना केवल ईश्वरको चाहिए और समझ लेना चाहिए कि अन्य सब कुछ मिथ्या है। यदि ऐसा किया जाये तो समस्तकी एकता दृष्टिगोचर हो सकती है। ईश्वरको समझनेका मार्ग हाथपर हाथ रखकर बैठ जाना नहीं है, बल्कि अहंकार-शून्य होकर काम करना है। अमुक व्यक्तिने सहस्र यज्ञ किये अथवा बड़ा दान किया, इससे वह योगी नहीं ठहरता। देखना यह पड़ेगा कि उसमें ममत्व था या नहीं, वह केवल भगवानके कच्चे धागेके इशारेपर नाचता था कि नहीं। अपने सारे काम वह इसी प्रकार करता था या नहीं। व्यासजी कहना चाहते हैं कि योगी वह है जो अपने अच्छे-बुरे सभी कर्मोंको ईश्वरके चरणोंमें डाल देता है और ईश्वरको ही कर्त्ता-हर्त्ता मानता है। इसलिए कृष्ण अर्जुनसे कहलवाते हैं:

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।(३,१)

आप कहते हैं कि कर्मकी अपेक्षा ज्ञान [ बुद्धि ] बढ़कर है, तो हे जनार्दन, आप मुझे इस घोर कर्ममें नियुक्त क्यों करते हैं?

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥(३,२)

पहले तर्क प्रस्तुत किये, फिर स्थितप्रज्ञकी बात की, उसके बाद योग अर्थात् 'कर्मसु कौशलम्' कहा — ऐसे मिश्र वाक्योंसे आप मुझे भ्रमित कर रहे हैं। इसलिए निश्चयपूर्वक मुझे कोई एक बात बताइए।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।(३,३)

हे निष्पाप, मैंने पहले दो स्थितियोंका उल्लेख किया—एक तो ज्ञानियोंके ज्ञान-योगका और दूसरे योगियोंके कर्मयोगका।

[ ३९ ]

शुक्रवार, ९ अप्रैल, १९२६

अर्जुन कहता है: समझमें नहीं आता क्या श्रेयस्कर है। क्षणमें लगता है कि युद्ध करूँ, किन्तु दूसरे ही क्षण लगता है, स्थितप्रज्ञको कुछ नहीं करना चाहिए।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति॥(३,४)

मनुष्य कर्मको बिलकुल ही छोड़कर नैष्कर्म्य (कर्मके फलानुभवसे मुक्ति) अथवा मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।