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'गीता-शिक्षण'

हमें 'गीताजी' में कर्म शब्द बार-बार मिलेगा। इसका क्या अर्थ है? संकुचित अर्थ तो है ही किन्तु व्यापकसे व्यापक अर्थ लें तो 'गीताजी' के श्लोक समझने में मदद मिलेगी। कर्मका अर्थ है सभी क्रियाएँ, शरीरके किसी भी अवयवकी चेष्टा। किन्तु 'गीताजी' की व्याख्याके अनुसार विचार भी कर्ममें आ जाता है। कोई भी गतिविधि स्वन ( शब्द अथवा आवाज) — श्वासोच्छ्वास — ये सभी कर्म हैं। कर्म किये बिना कोई रह भी नहीं सकता। कुछ कर्म इच्छापूर्वक करने पड़ते हैं और कुछ स्वाभाविक रूपसे चलते हैं। हमारा दैवी अंश हमें सन्मार्गकी ओर घसीटता है और आसुरी अंश कुमार्गकी ओर। अच्छे मनुष्यको भी आसुरी अंश बलपूर्वक कुमार्गकी ओर घसीटता है और व्यक्ति बुरा हो तो भी दैवी अंशकी शक्तिसे उसे अच्छे मार्गपर जाना पड़ता है। इस तरह स्वभाव, प्रेरणा और प्रयत्न इन तीनमें से किसी न किसी भावके द्वारा खींचा जाकर व्यक्ति कर्म करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं, तू ऐसा कैसे कह सकता है कि में कर्मका आरम्भ ही नहीं करूँगा। तुझे अपने मनके घोड़े तो दौड़ाते ही रहना पड़ेगा। संन्यासियों को भी विवश होकर कर्म करना पड़ता है। श्वास रोकनेका इरादा करनेमें भी कर्म है। कर्मका अनारम्भ भी कर्म है इसीलिए इसके द्वारा नैष्कर्म्यका अनुभव नहीं होगा। संन्यास और नैष्कर्म्य स्वाभाविक हो जाने चाहिए।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥(३,५)

कोई भी मनुष्य बिना कर्म किये क्षण-भर भी नहीं रह सकता। सुनना और न सुनना ये दोनों कर्म हैं। सत्व, रजस और तमस, प्रकृतिजन्य ये गुण बलपूर्वक कर्म करवाते ही रहते हैं। तामसी अर्थात् जड़तापूर्वक काम करनेवाला। राजसी अर्थात् घोड़ेको तेज दौड़ानेवाला उत्पाती। और सात्विक अर्थात् शान्त रीतिसे काम करने वाला। इनमें से किसी एकके अथवा उनके मिश्रणके द्वारा काम करना ही पड़ता है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥(३,६)

कर्मेन्द्रियों का संयम करके जो व्यक्ति इन्द्रियोंके विषयोंका स्मरण करता हुआ विविध इच्छाओंके घोड़ेपर चढ़कर घूमता रहता है और फिर भी ऐसा मानता है। कि मैं निष्कर्म हो गया हूँ, उसके ऐसे आचरणको उस मूढ़का मिथ्याचार — दम्भ — दिखावा कहेंगे। यदि मैं अपने हाथ बँधे रखकर भी मनसे अपने प्रतिद्वन्द्वीपर प्रहार कर रहा होऊँ, तो यह न मारते हुए भी मारना ही है। इसमें मारनेका रस तो नहीं मिलता किन्तु फल मिलता ही रहता है। मैंने जो कहा, उसका उलटा अर्थ न निकालें। इसका यह अर्थ नहीं है कि तब तो किसी भी प्रकारका अवकाश ही नहीं बचता; और इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विचारानुसार कर्म कर ही डालें। विचार तो आते ही रहते हैं; परन्तु हाथको रोकने में विचारसे मदद अवश्य मिलती है। जिस शत्रुने हमपर हमला कर दिया है उसके साथ लड़नेमें मिथ्याचार होता ही नहीं है। अभिप्राय यह है कि विचार और आचार में विरोध नहीं होना चाहिए। मनमें