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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भज रहे हों और बाहर तज रहे हों, तो मिथ्याचार। पूरा-पूरा प्रयत्न करते हुए भी जाग्रत न रहा जा सके तो यह मिथ्याचार नहीं है। क्योंकि आदत रूढ़ हो चुकी है। किन्तु विचारमें जाग्रत रहनेकी इच्छा तो होनी ही चाहिए। इसलिए जो व्यक्ति मनमें इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करता है और प्रत्यक्षमें उनसे अलग रहता है और वह व्यक्ति संन्यासी अथवा योगी कहलाये तो यह ठीक नहीं है। पूर्वजन्मके संस्कार पल-भरमें नष्ट नहीं होते। लहरें उठती ही रहती हैं। उनसे बार-बार भीगकर भी, किसी दिन हम कोरे हो जायेंगे। यदि कोई मेरा हाथ पकड़कर सामनेका यह दीपक मुझसे उठवा ले, तो भी मैं कह सकता हूँ कि उसे मैंने नहीं उठाया है क्योंकि मेरे विचारमें उसे उठानेकी बात है ही नहीं। बलपूर्वक किसीसे कोई काम करवा लिया जाये, तो हम उसका काम नहीं कह सकते। दृष्टान्तके लिए जिसे जबरदस्ती बन्दूक चलानी पड़ी हो वह खूनी नहीं है, बल्कि खूनी वह है जिसने बारूद और गोली जुटाई और अन्य दूसरी व्यवस्थाएँ कीं। यदि गोली चलानेवाला इच्छापूर्वक गोली चलाये, तो वह भी खूनी है। इस तरह विचार और आचारके बीच साम्य होना चाहिए। जहाँ साम्य दिखाई न दे, वहाँ यह कहना मुश्किल हो जाता है कि विचार किसका था और आचार किसका है। हमने छठवीं तारीखको उपवास किया था; किन्तु यदि हम उस दिन मनमें स्वाद लेते रहे हैं तो वह उपवास नहीं। किन्तु यदि मनमें खानेका विचार आता रहे और आदमी मनका दमन करता रहे अर्थात् प्रयत्नशील रहे तो वह मिथ्याचारी नहीं है। जो बुरे काम करता है, उसका त्राण नहीं हो सकता। किन्तु जो अपनी बुरी इच्छाके विरुद्ध संघर्ष करता है वह संकल्प तो यही करेगा कि वह मर भले ही जाये किन्तु दुष्कर्म नहीं करेगा। वह अपने दुर्विचारसे लड़ता ही रहेगा। जिसके विचार और आचारमें अखण्ड साम्य है और जो स्वच्छताशील है, वह ब्रह्मचारी हजार-हजार नमस्कारोंके योग्य है। संकल्प-विकल्प करना तो मनकी टेव है। यदि व्यक्ति उसे रोकता रहता है तो उसे जीता हुआ ही कहना चाहिए। ऐसे व्यक्तिमें कामकी इच्छा नहीं होती सो बात नहीं है, किन्तु उसमें विनयका भाव होता है। संन्यासी और योगी तो वही है जिसके विचार और आचारके बीच इतना साम्य स्थापित हो जाता है कि उसे यह भान भी नहीं होता कि वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा है। उस व्यक्तिको नपुंसक बनकर रहना चाहिए। स्त्री हो तो उसे अपने स्त्रीत्वका भान ही नहीं रहना चाहिए। बीमारीके कारण नपुंसकत्व प्राप्त व्यक्ति नहीं, जिसने अपनी इच्छासे नपुंसकत्व धारण किया है — ऐसा व्यक्ति। अविकारी व्यक्ति तो दोष करने में समर्थ ही नहीं रहता। सावधान व्यक्तिके भी पतनकी सम्भावना रहती है किन्तु अन्तमें वह निर्विकारी बन जाता है। अहिंसक व्यक्ति अन्ततोगत्वा मारनेकी वृत्ति ही खो देता है।

मूर्ख और ज्ञानीमें भेद नहीं है। मूर्ख ज्ञान दिखा ही नहीं सकता और ज्ञानी जगतकी आँखोंमें मूर्ख दिखता रहना चाहता है। जगतकी दृष्टिमें दोनोंकी चेष्टा समान ही दिखाई पड़ेगी। जिस व्यक्तिके मनमें अनन्त शक्ति स्फुरित हो रही हो, वह जड़-जैसा हो जाता है। पृथ्वी बहुत घूम रही है इसीलिए वह स्थिर-जैसी