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गीता-शिक्षण

लगती है। यहाँ जो बात कही गई है, वह शून्यताकी बात नहीं है। बुद्धका निर्वाण भी शून्य नहीं था। यहाँ अभिप्राय केवल बाह्य जड़तासे है।

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शनिवार, १० अप्रैल, १९२६

कल हमने देखा कि यदि कोई व्यक्ति दूर बैठा-बैठा हत्याकी सामग्री जुटाकर दूसरेसे खून भले ही कराए, खूनका घोर पाप वह स्वयं करता है। वह हत्या करनेवालेकी अपेक्षा भी अधिक हत्यारा है। युधिष्ठिर द्रोण और भीष्मके पास गये और उनसे कहा, आप यह क्या कर रहे हैं। जवाब मिला, पेट करवा रहा है। इसका यह अर्थ हुआ कि गुलाम अथवा नौकर अपने मालिकके हुक्मपर पाप करनेके कारण उतना बड़ा पापी नहीं है, जब कि खूनकी सारी सुविधाएँ इकट्ठी कर देनेवाला दूसरेसे खून कराकर भी, खून करनेवालेकी अपेक्षा अधिक बड़ा कुकर्मी है। बात यहाँ भी वही मिथ्याचारकी है। अब इससे विपरीत बात कहते हैं:

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥ (३,७)

जो व्यक्ति मनसे इन्द्रियोंको वशमें रखकर कर्मेन्द्रियोंके द्वारा, फलकी आतुरता-के बिना निःसंग रहकर कर्मयोगका आरम्भ करता है, वह श्रेष्ठ है।

कर्मेन्द्रियोंके द्वारा कर्म करता है, यह एक बात कही; और दूसरी बात कही इन्द्रियों को संयम में रखनेकी। इस तरह भेद उत्पन्न किया। दस इन्द्रियाँ द्वारपाल हैं। इनमें पाँच जासूस हैं, पाँच अमल करनेवाली हैं। हाथ, पाँव इत्यादि अमल करनेवाली इन्द्रियाँ हैं। आँख, नाक-रूपी द्वारपाल अनुशासनमें न रहें, तो उन्हें बन्द किया जा सकता है। उन्हें हमेशा अंकुश मारा जा सकता है। इन्हें अनुशासन में रखकर अन्य द्वारपालोंके द्वारा अमल करवाया जाना चाहिए। इस तरह जो व्यक्ति काम कराता है और निःसंग होकर काम करता है, वह श्रेष्ठ है। क्रोध करनेवाला व्यक्ति अनासक्त (आसक्तिहीन) नहीं है बल्कि आसक्त (आसक्तिपूर्ण) है।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥(३,८)

निश्चित किया गया कर्म, सौंपा गया कर्म कर, क्योंकि कर्म अकर्मकी अपेक्षा श्रेयस्कर है। कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना क्षण-भर भी नहीं रह सकता। यदि कर्म किये बिना कोई व्यक्ति रह ही नहीं सकता तो सोच-विचारकर कर्म करना अच्छा है। नियत, जो हमारे लिए निर्दिष्ट कर दिया गया है और जिसके विषयमें किसीसे कुछ पूछना ही नहीं है। क्योंकि शरीर-यात्रा, शरीर निर्वाह भी अकर्मसे नहीं सघता।