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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥(३,९)

यज्ञके लिए जो कर्म होता है, उसके अतिरिक्त दूसरे सारे कर्म बन्धन हैं। इसलिए केवल यज्ञके अर्थ मुक्तसंग होकर कर्म कर।

कल कर्म शब्दके अर्थकी बात की थी। इसी तरह यज्ञके अर्थका विचार कर लेना भी उचित होगा। अनेक विद्वान मानते हैं कि 'गीता' के कर्मका मोचीके काम अथवा कातनेके काम अर्थात् लोक व्यवहारसे सम्बन्ध नहीं है। वे कर्मका अर्थ तो श्राद्धादि लेते हैं। और कातने-बुनने आदिको अपनी व्याख्यामें से निकाल फेंकते हैं। किन्तु 'गीताजी' का व्यवहारके साथ निकटका सम्बन्ध है। जिसका व्यवहारमें उपयोग नहीं हो सकता, वह धर्म नहीं है, अधर्म है। पाखाना भी साफ करना है तो धर्म दृष्टिसे ही करना है। पाखाना साफ करते हुए जिस मनुष्यमें धर्मकी जागृति है, वह मनुष्य विचार करेगा कि पाखानेमें इतनी दुर्गन्ध क्यों है। हम विकारोंसे भरे हुए हैं। हमें इसका भान होना चाहिए। रोगी अथवा विकारी मनुष्यके पाखानेसे दुर्गन्ध निकलने- वाली ही है। दूसरा आदमी जो पाखाना धर्म-दृष्टिसे साफ नहीं करता और काम-चोर है वह उठाये हुए मलको चाहे जहाँ फेंक आयेगा और बरतन भी ठीक साफ नहीं करेगा, क्योंकि वह इस कामको धर्मभावसे नहीं करता। वह दयाभावको नहीं समझता और उसके पास विवेक भी नहीं है। इसलिए अवश्य ही धर्मका व्यवहारके साथ सम्बन्ध है। कर्मकी व्याख्या हमने जिस कारण व्यापक की, उसी प्रकार यज्ञकी व्याख्या व्यापक की जानी चाहिए। इसपर कल विचार करेंगे।

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रविवार, ११ अप्रैल, १९२६

जिस तरह हमारी भाषा और हमारे धर्ममें यज्ञ शब्द है उसी प्रकार 'बाइबिल' में भी है और यहूदी धर्म-शास्त्रोंमें भी। 'कुरान' में तीन बातें मिलती हैं: (१) पशु-यज्ञ, बकरीदके दिन कुर्बानी; (२) 'कुरान' में भी वही बात आई है जो यहूदियोंमें है। पिता द्वारा पुत्रका बलिदान। इब्राहीम ऐसा करता है। (३) रमजान इत्यादिमें कुर्बानीका अर्थ है अपने किसी प्रियको दे डालना, उसका त्याग करना। इसी तरह 'बाइबिल' में ईसाके समय यज्ञका विस्तृत अर्थ किया गया। उन्होंने कहा कि इस तरह पशुकी बलि देनेसे तुम्हारा हित सिद्ध नहीं होता। यज्ञका जो अर्थ है उसके लिए तो तुम्हें इससे बहुत आगे जाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि दूसरेकी जान लेनेसे यज्ञ नहीं होता वरन् तुम्हें स्वयं अपना शरीर दे डालना चाहिए। उन्होंने ऐसा कहा और सारे जगतके कल्याणके लिए अपने शरीरकी बलि दे दी। बलि इसलिए नहीं दी जानी चाहिए कि खानेको मिल जाता है बल्कि जगतके आध्यात्मिक कल्याणके लिए, पाप धोनेके लिए दी जानी चाहिए। हिन्दू धर्ममें भी पहले नरमेध होता था। बादमें उसकी जगह पशु-यज्ञकी व्यवस्था की गई। आज भी काली माताके सामने हजारों बकरे चढ़ाये जाते हैं। अनेक प्रकारकी मनोकामना सिद्ध करनेके लिए भी यज्ञ सिद्ध