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'गीता-शिक्षण'

किये जाते हैं। अंग्रेजीमें यज्ञ शब्दका धात्वर्थं अच्छा है। यज्ञ अर्थात् पवित्र करना। संस्कृतमें यज्ञ (यज्) अर्थात् पूजना। इंजीलमें यज्ञका अर्थ त्याग करना। तथापि इन तीनोंमें जो बात है और जिसे स्वीकार किया जा सकता है, वह यह है कि परोपकारके लिए किये गये सारे कर्म यज्ञ हैं। पशुका वध परोपकारकी दृष्टिसे भी किया जाता है — जैसे वर्षा के लिए। इसमें दृष्टि भले ही परोपकारकी हो — किन्तु जिसमें हम किसी अन्य जीवकी हत्या करते हैं, वह यज्ञ नहीं हो सकता। हम अपना मन भले ही मना लें कि हमने पैसा खर्च करके बकरा खरीदा और त्याग किया किन्तु करोड़ों हिन्दू इस बातको कैसे मान सकते हैं।

गुजरातमें भी कई जगह यह प्रथा देखनेमें आती है। दशहरे के दिन भैंसेका वध किया जाता है; किन्तु हमारी बुद्धि कहती है कि यह यज्ञ नहीं हो सकता। यह प्रभु की पूजा नहीं हो सकती। फिर भी इसके पीछे मान्यता यही रही है कि इससे दूसरोंका भला होता है। इसलिए हमें यज्ञके दो अर्थ करने चाहिए। जिससे परोप- कार होता हो और जिससे दूसरे जीवको दुःख न होता हो; वह यज्ञ। दूसरे जीवको दुःख न देकर हम जगतका कल्याण साध सकते हैं। यह तभी हो सकता है, जब हम दूसरे जीवोंको अपने ही जैसा समझें। देहको क्षण-भंगुर मानने लगें, तभी यह सधेगा। यदि 'यज्ञ' शब्दका अर्थ 'गीताजी' में हम ठीक लें, तो 'गीताजी' को समझनेमें और लोक व्यवहारमें कोई बाधा उत्पन्न न हो। यज्ञ मनसे भी हो सकता है और शरीरसे भी। इन दो अर्थोंमें से जहाँ जो अर्थ लागू हो, उसे हम ले लिया करें।

मनुष्य किसी समय पशु-वध किसलिए करता था अथवा आज भी क्यों करता है, इस प्रपंच में पड़े बिना हम एक ही वाक्यमें इसका जवाब दे सकते हैं। मनुष्य अपने खानेके लिए आसपास मिलनेवाली वस्तुओंमें से चुनता है और वह जिस कामको करने में पाप नहीं समझता उसे परोपकारके लिए करनेमें तो बाधा मान ही कैसे सकता है? जहाँ ऐसी मान्यता होगी कि किसीको मारे बिना वर्षा होनेकी संभावना नहीं है, वहाँ मारनेमें कोई देर नहीं होगी। मनुष्यके विचार जैसे-जैसे उन्नत होते जाते हैं, वैसे-वैसे उसके शब्दोंके अर्थ भी विकसित होते चले जाते हैं। यदि व्यासजीने शब्दोंका किसी निश्चित अर्थ में ही व्यवहार किया होता, तो भी हम कहते कि उनके मनका अर्थ आज कैसे चल सकता है? उदाहरणके लिए हमने असहयोगका जो अर्थ मान्य कर लिया है वह कहीं अधिक है। आज हम 'गीताजी' में आये हुए 'यज्ञ' शब्दको अतिरिक्त अर्थ देते हैं। सम्भव है, व्यासजीके मनमें वैसा अर्थ न रहा हो। किन्तु इसमें भी अड़- चन माननेकी कोई बात नहीं है। हम अतिरिक्त अर्थ देकर भी व्यासजीके प्रति अन्याय नहीं करेंगे। पितासे प्राप्त जायदाद में पुत्रका वृद्धि करना उचित ही है। आज हमने चरखेके सम्बन्धमें जो भावना उत्पन्न कर ली है, यदि कोई उससे भी अधिक भावना उत्पन्न करे तो क्या इसमें कोई बुरी बात हुई। भविष्यमें लोग कह सकते हैं कि चरखा हानिकारक है। कपाससे बने कपड़े ही नहीं पहनने चाहिए; इसमें तो हानि है।