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'गीता-शिक्षण'

वही तो निकाला जा सकता है और वह ऐसा होना चाहिए कि यूक्लिड जिसपर शंका न करे, जो उसके विचारोंके विरोधमें न जाये। कविने जो कुछ कहा है यदि उसका उससे अधिक अर्थ निकालें तो इससे किसीके प्रति कोई अन्याय नहीं होता। कुएँ इत्यादिसे जो काम निकल सकता है, सरोवरसे तो वह निकल ही सकता है। पानीका उपयोग अच्छे कामके लिए भी किया जाता है और खराब कामके लिए भी। बाँधको तोड़कर अनेक खेतोंका नाश भी किया जा सकता है। इसलिए हमने यज्ञका जो यह अर्थ किया कि परोपकारके लिए किया गया कर्म या कार्य, सो ऐसा नहीं है कि 'गीता' के विरोधमें जाये। सत्पुरुषका सारा जीवन, उसकी सारी शक्तिका उपयोग परोपकारार्थ ही होता है।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।

यहाँ यज्ञका अर्थ विष्णु भी बैठ सकता है, शैव सम्प्रदायवाला इसका अर्थ तब इसका अर्थ निकलेगा कि ईश्वरार्थ किया हुआ शिव भी लगा सकता है और प्रत्येक कार्य मोक्ष देनेवाला है।

'सहयज्ञाः प्रजा सृष्ट्वा'—अभिप्राय यहाँ यज्ञके किस प्रकारसे है? क्या यहाँ इस शब्दका कोई विशेष अर्थ है। मुझे लगता है कि विशेष अर्थ है । यहाँ इसका अर्थ मानसिक कार्य है ही नहीं । ब्रह्माने केवल विचारके द्वारा वृद्धि पानेके लिए नहीं कहा। उन्होंने तो यह कहा है कि तुम शरीर-यज्ञ अथवा स्वयं अपने शरीरसे श्रम करके उन्नति प्राप्त करो। अन्य शास्त्रोंमें भी यही बात है । 'बाइबिल' में कहा गया है, "विद द स्वेट आफ दाइ ब्रो दाउ शैल अर्न दाइ ब्रेड"। तू अपनी जीविका शरीर-श्रमसे प्राप्त-कर — अपने पसीनेका खा। शरीर-श्रम तो हमारे भाग्यमें ही लिखा हुआ है। तब फिर अच्छा है कि हम उसे सेवा भावसे कृष्णार्पण करके अपनायें। जिस व्यक्तिने इस तरह काम करके दिखाया, वह दोषमुक्त, बन्धनमुक्त हुआ। व्यक्तिकी उपमा बादशाहके सिपाहीसे दी जा सकती है। वह अपना भाग पूरा करके सन्तोष मान लेता है। वह सिपहसालार जैसा ही है। ईश्वरके आगे उन दोनोंका एक ही मूल्य है, क्योंकि वह तो केवल हमारा हेतु ही देखता है। अर्जुनके बाण, वही बाण कृष्णके बिना निकम्मे हो गये और उसे भीलोंने लूट लिया। इसलिए 'सहयज्ञाः' वाले श्लोकमें बात शरीर-यज्ञकी है। शरीर यज्ञ भी कैसा? जिसमें देव और मनुष्य एक-दूसरेका पोषण करें ऐसा। देवका अर्थ जीव मात्र अथवा ईश्वरकी समूची पोषक शक्ति। देवता अदृश्य शक्तिके प्रतीक हैं। आदमी जबतक जो सामने है, उसीकी सेवा कर रहा है, तबतक वह परमार्थ नहीं कर रहा है। वह जिसे नहीं जानता जब उसकी भी सेवा करता है, तब परमार्थ होता है। तीस करोड़ देव कल्पित किये गये हैं। बालक तो इस संख्याकी कल्पना भी नहीं कर सकते। हम एक बारमें एक करोड़को भी नहीं देख सकते। गिन भी नहीं सकते। हमारे सामने जिस तरह बालक बैठे हुए हैं, वे हमारे सामने उस तरह उपस्थित नहीं हैं, फिर भी हम उनसे अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं। इससे भी आगे जायें, तो सारा जगत हमारा सेवा क्षेत्र हो जाता है। इसीलिए हमने 'देव' शब्द छोड़कर 'दूरवर्ती' ऐसा अर्थ निकाला अर्थात् अदृश्य व्यक्ति भी। हम उन्हें अपना