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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नौकर मानकर नहीं वरन् देवता मानकर विनय और आदरके साथ उनकी सेवा करें। अर्थात् सारे संसारकी सेवा करें।

इस श्लोकमें कहा गया है कि मजदूरी करके सेवा कर। व्यक्ति एक क्षण-भर भी बिना शरीर श्रमके काम नहीं चला सकता। यदि मनुष्यने इस ईश्वरीय नियमका लोप न किया होता, तो हम आज इतने दुःखी न होते। राजाके पास राशि राशि धन न होता तो करोड़ों लोग भूखों न मरते। ईश्वर तो जबरदस्त अर्थशास्त्री है। वह सर्व-शक्तिमान है। हम पूरी तरह अपरिग्रह नहीं कर सकते। परन्तु ईश्वर सदा अपरिग्रही है, क्योंकि वह कल्पना करते ही जगतका नाश कर सकता है और फिर जगत बना दे सकता है। इसलिए उसने हमें सिर्फ चौबीस घंटेके लिए चीजें दीं। दूसरे दिन भी चाहिए, तो दूसरे दिन मजदूरी करो। उसने कहा कि अगर हम शरीर-श्रम नहीं करेंगे, कठिन परिश्रम नहीं करेंगे तो हमारा नाश हो जायेगा। उसने कहा कि हम सारे दुःख खुशी-खुशी भोगें। यदि हम दुनियामें इस कायदेको उसका स्थान दें तो भुखमरी, पाप और व्यभिचार न बचें। जो आदमी चौबीसों घंटे नीचा सिर करके शरीरश्रम कर रहा है, (चौबीसों घंटे कहता हूँ, क्योंकि सोते हुए भी वह मजदूरी कर रहा है) वह जगतका कल्याण करनेके लिए भी ऐसा कर रहा है। उस परिस्थितिमें उसमें से विषय- विकार निष्पन्न होना अशक्य बात है। यदि जगतके मजदूर हमारे जैसे विकारी होते, तो संसार न चलता । धनिक वर्गको तरह-तरहके सुख भोग चाहिए। यदि मजदूर भी वैसे ही मजे उड़ाते तो दुनिया कहाँ होती। पश्चिममें आज यह हवा फैली है कि आदमीका जन्म स्त्री-पुरुष विकारको सन्तुष्ट करनेके लिए ही हुआ है । अधर्मका प्रचार किया जा रहा है । यदि कुदाली चलाते रहें तो विकार कहाँसे पैदा हो । हमें इस मर्यादाको मानकर आचरण करना चाहिए। शरीर-यज्ञ व्यवस्थित रूपसे करें तो हम सबका कल्याण हो, आत्मा और जगतका कल्याण हो । यदि मन और शरीर आत्माके वशमें रहें और आत्मा स्वस्थ बनी रहे तो ऐसा आदमी कर्म करते हुए भी कुछ नहीं करता, ऐसा कहा जा सकता है।

लकड़ियाँ जलाने से यज्ञ हो जाता है, यह मेरी समझमें ही नहीं आता। यह कहना कि इस तरह वायु स्वच्छ होती है, निरर्थक है। वायु शुद्ध करनेके अनेक साधन हैं। हम हवा खराब करते ही क्यों हैं? हवा तो साफ ही है। हवाको हम खराब करते हैं। परन्तु यज्ञ करनेका कारण यह है ही नहीं। जब आर्य हिन्दुस्तानमें आये, तब उन्होंने अनार्योंको सुधारनेका प्रयत्न किया। सम्भव है, पहले यज्ञकी कल्पना उन्हींकी दृष्टिसे की गई हो। उस समय बड़े घने घने जंगल थे और इसलिए जंगल काटना हरएक आदमीका धर्म बन गया हो; क्योंकि समाजके लिए उसकी जरूरत थी। और चूंकि यह धर्म हो गया इसलिए कल्पना की गई कि वह मोक्षदाता है। अनेक ऐसी क्रियाओंकी व्यवस्था हुई जिनमें बिना अग्निके काम नहीं चलता। ये ऋषिगण यदि किसी सुखे प्रदेशमें होते तो उन्होंने यज्ञको जो स्वरूप दिया होता, उसमें कदाचित् एक भी टहनी काटनेकी गुंजाइश न दी जाती। अथवा वृक्षारोपण और अमुक घड़े पानीसे उसे सींचने का विधान होता । आज हम लकड़ियाँ जलाते हैं, यह तो